________________
१६०
इसी ग्रन्थ में आगे ७१ द्वार में कहा है
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
"
14 जायं च चउत्थं मण शायं
11
अर्थात- दीक्षा ग्रहण करने के समय सभी तीर्थंकरों को
★
चौथा मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ । दीक्षा नगर
रिवरणेमी ।
उसभो य विणीयाए बारवईए अवसेसा तित्थयरा शिक्खता जम्मभूमीसु ॥ भावार्थ - भगवान् ऋषभदेव स्वामी ने विनीता में और अरिष्ट नेमिनाथ स्वामी ने द्वारका में दीक्षा धारण की। शेष तीर्थंकर अपनी जन्म भूमि में प्रत्रजित हुए । (श्रा० ६० गाथा २२६) (समवायांग १५७) दीक्षा वृक्ष
सभी तीर्थंकर अशोक वृक्ष के नीचे प्रव्रजित हुए जैसे कि'शिक्खता असोगतरुतले सवे' ( सप्ततिशत० ६८ द्वार)
दीक्षा तप
सुमइत्थ णिच्च भत्ते सिंग्गओ वासुपूज्ज चउत्थे । पासो मल्ली वि य छामेरा सेसा उ छड़ेणं ॥ 'भावार्थ- सुमतिनाथ स्वामी नित्य भक्त से और वासुपूज्य स्वामी उपवास तप से दीक्षित 'हए । श्रीपार्श्वनाथ स्वामी और मल्लिनाथ स्वामी ने तेला तप कर दीक्षा ली । शेप बीस तीर्थंकरों ने वेला तप पूर्वक प्रव्रज्या धारण की। (प्र० सा० ४२ द्वार' (समवायाग १५७) 'दीक्षा परिवार
एगो भगवं वीरो पासो मल्लीय तिहि तिहिं सहिं । भगवंपि वासुपुज्जो छहि छहि पुरिससएहि क्खितो ॥ उग्गाणं भोगाणं रायण्णाणं च खत्तियाणं च चउहिं सहस्सेहिं उसहों सेसा उ सहस्त्र परिवांरा ॥ - भावार्थ - भगवान् महावीरस्वामी ने अकेले दीक्षा ली। श्री पार्श्वनाथ
,