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१६८ . .श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला"कठोर तथा दूसरों द्वारा असह्य परिषहों को भी कुछ नहीं गिनते थे। इसी प्रकार ख्याल, नाच, गान, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि की बातों को सुनकर उत्सुक नहीं होते थे।..-.-:. .
(१०) किसी समय ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान महावीर यदि त्रियों को परस्पर कामकथा में लीन देखते तो वहाँ भी. राग द्वेष रहित होकर मध्यस्थ भाव धारण करते । इन तथा दूसरे अनुकूल और प्रतिकूल भयंकर परिपहों की परवाह किये बिना ज्ञातपुत्र भगवान् संयम में प्रवृत्ति करते थे। .... ..(११) भगवान् नै दीक्षा लेने से दो वर्ष पहले ठंडा (कचा) पानी छोड़ दिया था। इस प्रकार दो वर्ष से अचित्त जल का सेवन करते हुए तथा एकत्व भावना-भाते हुए भगवान् ने कपायों को शान्त किया और. सम्यक्त्व भाव से प्रेरित हो दीक्षा धारण कर ली-1
(१२-१३). भगवान महावीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और शैवाल, वीज मांदि वनस्पतिकार्य तथा त्रसकाय को चेतन जानकर उनकी हिंसा का परिहार करते हुए विचरते थे।----
(१५) अपने अपने कर्मानुसार स्थावर जीव स रूप से उत्पन्न होते हैं और बस स्थावर रूप से उत्पन्न होते हैं, अथवा सभी जीव' अपने अपने कर्मानुसार विविध योनियों में उत्पन्न होते हैं। भगवान् संसार की ईस विचित्रता पर विचार किया करते थे।
(१५) भगवान महावीर ने विचार कर देखा कि अज्ञानी जीव द्रव्यं और भाव उपाधि के कारणं ही कर्मों से बंधता हैं। इसलिए भगवान् कर्मों को जानकर कर्म तथा उनके हेतु पाप का त्याग करते थे। .. (१६) बुद्धिमान् भगवान् ने दो प्रकार के कर्मों (ईर्याप्रत्यय और साम्परायिक) को तथा हिंसा एव.योगरूप उनके आने के मार्ग को जानकर कर्म नाश के लिये सयंमरूप उत्तम क्रिया को बताया है।
(१७) पवित्र अहिंसा का अनुसरण करके भगवान् ने अपनी