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१. श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला männimmmmmmmmmmmmmmmm अलग क्यों कहा गया जबकि उसके विषय भूत मनोद्रव्य "अवधि से ही जाने जा सकते हैं ? . . । उत्तर-भगवती सूत्रप्रथमशतक के तीसरे उद्देशे के सू०३७की टीका में यहीशंका उठाई गई है एवं उसका समाधान इस प्रकार किया गया है। यद्यपि अवधिज्ञान का विषय मन है तो भी मनःपर्ययज्ञान का उसमें समावेश नहीं होता क्योंकि उसका स्वभाव ही 'जुदा है। मनःपर्ययज्ञान केवल मनोद्रव्य को ही ग्रहण करता है एवं उसके पहले दर्शन नहीं होता। अवधिज्ञान में कोई तो मन से भिन्न रूपी द्रव्यों को विषय करता है और कोई दोनों-मनोद्रव्य और 'दूसरे रूपी. द्रव्यों को जानता है । अवधिज्ञान के पहले दर्शन अवश्य होता है एवं केवल मनोद्रव्यों को ग्रहण करना अवंधिज्ञान का विषय नहीं है इसलिए अवधिज्ञान से भिन्न मनापर्ययज्ञान है। ' तत्वार्थ -सूत्रकार आचार्य उमास्वाति. ने अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान का भेद बताते हुए कहा है-'विशुद्धि क्षेत्र. स्वामि विषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययो । उक्त सूत्र का भाष्य करते हुए 'उमास्वाति कहते हैं-अवधिज्ञान से मनःपर्ययज्ञान अधिक स्पष्ट
होता है । अवधिज्ञान का विषय भूत क्षेत्र अगल के असंख्यातवें 'भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक है किन्तु मनः पर्ययज्ञान का क्षेत्र "तिर्यक्लोंक, में मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त है। अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को होता है.जव कि मनःपर्ययज्ञान केवल चारित्र'धारी महर्षि को ही होता है । अवधिज्ञान का विषय संपूर्ण रूपी द्रव्य है परन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय उसको अनन्तवां भाग अर्थात केवल मनोद्रव्य है। :- । (तत्वार्थःसू. अ.१ स. २६) (भगवती शतक १ उद्देशा ३ सू. ३७ टीका) : (७) प्रश्न-शास्त्रों में कहा है कि सभी जीवों के अंदर का 'अनन्तवाँ भाग सदा अनावृत्त (आवरणरहित ) रहता है । यहाँ