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श्री जैन सिद्धान्त- डोल संग्रह, छठा माग १३५ लिये नगर में नहीं जाता-किन्तु-उधर से निकलने वाले मुसाफिरों से.महीने, पन्द्रह दिन में श्राहार ले लिया करता था । इस प्रकार वह कठोर तपस्या करता था।
मागधिका वेश्याकपट-श्राविका बनकर साधुओं की सेवा भक्ति करने लगी। धीरे धीरे उसने कूलवालक साधु को पता लगा लिया। वह उसी नदी के किनारे जाकर रहने लगी और .कूल; बालक की सेवा भक्ति करने लगी। उसकी भक्ति और आग्रह के वश होकर एक दिन वह वेश्या के यहाँ गोचरी को गया । उसने विरेचक औषधि मिश्रित लड्डु बहराये जिससे. उसे अतिसार हो गया । तब वह वेश्या.उसके शरीर की सेवा शुश्रूषा करने लगी। उसके स्पर्श.अादि से मुनि का चित्त विचलिन हो गया। वह उसमें:
आसक्त हो गया । उसे पूर्णरूप से अपने वश में करके वह वेश्या उसे कोणिक के पास ले.अाई।.. . . - __कोणिक ने कूलवालक से पूछा--विशाला नगरी का कोट . किस प्रकार गिराया जा सकता है और विशाला नगी फिस प्रकार जीती जा सकती है ? इसका उपाय बतलाओ । कूलवालक ने कोणिक को उसका आय वाला दिया और कहा-मैं विशाला में जाता हूँ। जब मैं आपको सफेद वस्त्रं द्वारा संकेत करूं तब
आप अपनी सेना को लेकर कुछ पीछे हट जाना । इस प्रकार कोणिक को समझा कर वह नैमित्तिक का रूप बनाकर विशाला नगरी में चला गया। . . , , . .
उसे नैमित्तिक समझ कर विशाला के लोग पूछने लगेकोणिक हमारी नगरी के चौतरफ घेरा डालकर पड़ा हुआ है। यह उपद्रव का दुर होगा ? नैमित्तिक ने कहा- तुम्हारी नगरी के मध्य में श्री मुनिसुव्रत स्वामी का पादुकास्तूप (स्मृति-चिह्न विशेष) है । उसके कारण यह उपद्रव बना हुआ है। यदि उसे उखाड़,