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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ने वहीं पर चातुर्मास कर दिया । तब गुरु के समक्ष आकर चार मुनियों ने अलग अलग चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। एक मुनि ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने सर्प के बिल पर, तीसरे ने कुए के किनारे पर, और स्थूलभद्र मुनि ने कोशा वेश्या के घर चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। गुरु ने उन चारों मुनियों को आज्ञा दे दी । सब अपने अपने इष्ट स्थान पर चले गये । जब स्थूलभद्र मुनि कोशा वेश्या के घर गये तो वह बहुत हर्षित हुई । वह सोचने लगी - बहुत समय का बिछुड़ा मेरा प्रेमी वापिस मेरे घर आगया । मुनि ने वहाँ ठहरने के लिये वेश्या की आज्ञा मांगी। उसने मुनि को अपनी चित्रशाला में ठहरने की आज्ञा दे दी । इसके पश्चात् शृङ्गार आदि करके वह बहुत हावभाव कर सुनि को चलित करने की कोशिश करने लगी, किन्तु स्थूलभद्र अब पहले वाले स्थूलभद्र न थे । भोगों को किंपाकफल के समान दुखदायी समझ कर वे उन्हें ठुकरा चुके थे । उनके रंग रंग में वैराग्य घर कर चुका था । इसलिये काया से चलित होना तो दूर वे मन से भी चलित नहीं हुए। मुनि की निर्विकार मुखमुद्रा को देखकर वेश्या शान्त हो गई । तब मुनि ने उसे हृदयस्पर्शी शब्दों में उपदेश दिया जिससे उसे प्रतिबोध हो गया । भोगों को दुःख की खान समझ उसने भोगों को सर्वथा त्याग दिया और वह श्राविका बन गई ।
चातुर्मास समाप्त होने पर सिंहगुफा, सर्पद्वार और कुए पर चातुर्मास करने वाले मुनियों ने चाकर गुरु को वन्दना नमस्कार किया। तब गुरु ने 'कृत दुष्काराः" कहा, अर्थात् हे मुनियों ! तुमने, दुष्कार कार्य किया । जब स्थूलभद्र, मुनि आये तो एकदम गु महाराज खड़े हो गये और 'कृत दुष्करदुष्करः' कहा, अर्थात् हेमुने ! तुमने महान् दुष्कर कार्य किया है ।
गुरु की बात सुनकर उन तीनों मुनियों को ईर्षाभाव उत्पन्न