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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मोहनीय । यहाँ चारित्रमोहनीय से नोकषाय मोहनीय समझना चाहिये, क्योंकि तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ से कषाय मोहनीय लिया गया है। मोहनीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से भी जीव मोहनीय कर्म बांधता है ।
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मोहनीय कर्म का अनुभव पाँच प्रकार का है- सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, सम्यक्त्व मिथ्यात्वमोहनीय, कपाय मोहनीय और नोकषायमोहनीय |
यह अनुभाव पुद्गल और पुद्गलपरिणाम की अपेक्षा होता है तथा स्वत: भी होता है । शम संवेग आदि परिणाम के कारणभूत एक या अनेक पुगलों को पाकर जीव समकितमोहनीयादि वेदता है। देश काल के अनुकूल आहार परिणाम रूप पुद्गल परिणाम से भी जीव प्रशमादि भाव का अनुभव करता है ।
आहार के परिणाम विशेष से भी कभी कभी कर्म पुगलों में विशेषता आजाती है । जैसे ब्राह्मी औषधि आदि आहार परिणाम से ज्ञानावरणीय का विशेष क्षयोपशम होना प्रसिद्ध ही है । कहा भी है
उदय खय खओवसमा वि य, जं च कम्मुलो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं, भावं भवं च संसप्प ॥ १ ॥
अर्थात् कर्मों के उदय, क्षय और क्षयोपशम जो कहे गये हैं वे सभी द्रव्य क्षेत्र काल भाव और भव पाकर होते हैं ।
. बादलों के विकार आदि रूप स्वाभाविक पुद्गल परिणाम से भी वैराग्यादि हो जाते हैं । इस प्रकार शम संवेग आदि परिणामों के कारणभूत जो भी पुद्गलादि हैं उनका निमित्त पाकर जीव सम्यक्त्वादि रूप से मोहनीय कर्म को भोगता है यह परतः अनुभाव हुआ । सम्यक्त्व मोहनीयादि कार्मण पुद्गलों के उदय से जो प्रशमादि भाव होते हैं वह स्वतः अनुभाव है।
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