SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कि वह आच्छादित ज्ञानशक्ति वाला हो जाता है । यह ज्ञानावरणीय का स्वतः निरपेक्ष अनुभाव है । (२) दर्शनावरणीय कर्म - वस्तु के सामान्य ज्ञान को दर्शन कहते हैं। आत्मा की दर्शन शक्ति को ढकने वाला कर्म दर्शनावरणीय कहलाता है । दर्शनावरणीय कर्म द्वारपाल के समान है । जैसे द्वारपाल राजा के दर्शन करने में रुकावट डालता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म पदार्थों को देखने में रुकावट डालता है। अर्थात् आत्मा की दर्शन शक्ति को प्रकट नहीं होने देता । दर्शनावरणीय कर्म के नव भेद हैं- (१) चक्षुदर्शनावरण ( २ ) अचक्षुदर्शनावरण (३) अवधिदर्शनावरण (४) केवलदर्शनावरण (५) निद्रा (६) निद्रानिद्रा (७) प्रचला (८) प्रचलाप्रचला (६) स्त्यानगृद्धि । चार दर्शन की व्याख्या इसके प्रथम भाग बोल नं० १६६ में दे दी गई है। उनका आवरण करने वाले कर्म चक्षुदर्शनावरणीयादि कहलाते हैं । पाँच निद्रा का स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं० ४१६ में दिया जा चुका है । चतुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण मूल से ही दर्शनलब्धि का घात करते हैं और पाँच निद्रा प्राप्त दर्शन शक्तिका घात करती हैं । दर्शनावरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। दर्शनावरणीय कर्म बांधने के छ कारण हैं । वे छः कारण इसके दूसरे भाग के छठे बोल संग्रह बोल नं० ४४१ में दिये जा चुके हैं। उनके सिवाय दर्शनावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से भी जीव दर्शनावरणीय कर्म बांधता है। दर्शनावरणीय कर्म का अनुभाव नव प्रकार का है। ये नव प्रकार उपरोक्त नौ भेद रूप ही हैं। दर्शनावरणीय कर्म का उक्त अनुभाव स्वतः और परतः दो प्रकार का होता है । मृदु शय्यादि एक या अनेक पुलों का ५९
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy