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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
से सूर्य के ढक जाने पर भी उसका इतना प्रकाश अवश्य रहता है कि दिन रात का भेद समझा जा सके। इसी प्रकार चाहे जैसा प्रगाढ़ ज्ञानावरणीय कर्म क्यों न हो पर उसके रहते हुए भीमा में इतना ज्ञान तो अवश्य रहता है कि वह जड़ पदार्थों से पृथक किया जा सके ।
ज्ञान के पाँच भेद हैं, इसलिये उनको आच्छादित करने वाले ज्ञानावरणीय कर्म के भी पाँच भेद हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के पाँच भेदों का स्वरूप इसके प्रथम भाग के पाँचवें बोल नं० ३७८ में दिया जा चुका है । ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की हैं।
Sataratity कर्मबन्ध के छः कारण हैं। ये छ: कारण इसके द्वितीय भाग छठे बोल संग्रह के बोल नं० ४४० में दिये जा चुके हैं । भगवती सूत्र में प्रत्येक कर्मबन्ध का कारण बताते हुए अमुक अमुक कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म का उदय भी कारण रूप से बताया गया है। इसलिये ज्ञानावरणीय कर्म के उक्त छः बन्ध कारणों के सिवाय ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म का उदय भी इस कर्म का बन्धकारण है, यह समझना चाहिये। आगे भी भिन्न भिन्न कर्मबन्ध के कारण बताये जायँगे, वहाँ पर भी इसी प्रकार उस कर्म का उदय भी कारणों में समझ लेना चाहिये ।
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ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव दस प्रकार का है- ( १ ) श्रोत्रावरण ( २ ) श्रोत्रविज्ञानावरण ( ३ ) नेत्रावरण (४) नेत्रविज्ञानावरण ( ५ ) घाणावरण (६) घ्राणविज्ञानावरण ( ७ ) रसनावरण (८) रसनाविज्ञानावरण (६) स्पर्शनावरण और (१०) स्पर्शनविज्ञानावरण ।
यहाँ श्रोत्रावरण से श्रोत्रेन्द्रिय विषयक क्षयोपशम का आवरण
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