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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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अनादि अपर्यवसित होता है। ईर्यापथिकी क्रियाजन्य कर्मबन्ध सादि सान्त होता है। यह कर्म बन्ध उपशान्तमोह क्षीणमोह
और सयोगी केवली के होता है । अबद्धपूर्व होने से यह सादि है। श्रेणी से गिरने पर अथवा अयोगी अवस्था में यह कर्मबन्ध नहीं होता, इसलिये सपर्यवसित (सान्त) है। भवसिद्धिक जीव के कर्म का उपचय अनादि काल से है किन्तु मोक्ष जाते समय वह कर्म से मुक्त हो जाता है। इसलिये उसके कर्म का उपचय अनादि सान्त कहा गया है। अभव्य जीवों के कर्म का उपचय अनादि अनन्त है। अभव्य जीव में मुक्तिगमन की योग्यता स्वभाव से ही नहीं होती । वे अनादि काल से कर्म सन्तति से बंधे हुए हैं और अनन्त काल तक उनके कर्म बन्धते रहेंगे।
सुवर्ण और मिट्टी परस्पर मिलकर एक बने हुए हैं पर तापादि प्रयोग द्वारा जैसे मिट्टी को अलग कर शुद्ध स्वर्ण अलग कर दिया जाता है। उसी प्रकार दानादि के प्रयोग से आत्मा कर्ममल को दूर कर देता है एवं अपने ज्ञानादिमय शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है । आत्मा से एक बार कर्म सर्वथा पृथक् हुए कि फिर वे बन्ध को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि तब उस जीव के कर्म बन्ध के कारण रागादि का अस्तित्व ही नहीं रहता। जैसेबीज के सर्वथा जल जाने पर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्मरूपी बीज के जल जाने पर संसाररूप अंकुर नहीं उगता। कर्मात निजात्मखरूप को प्रगट करने की इच्छा वाले भव्य
जीवों के लिए जैन शास्त्रों में कर्म तय के उपाय बताए हैं। | तत्त्वार्थ सूत्रकार ने ग्रन्थ के आदि में कहा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकृचारित्र मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है। उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन में यही बात इस प्रकार कही गई है