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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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कब से कर्म आत्मा के साथ लगे हैं ? और उनके लगने का क्या आकस्मिक कारणथा?यों तोशुद्ध स्वरूप में स्थित आत्माओं के कर्म बंध के कारणों का संभव नहीं है।
कर्मबन्ध के कारण-जैन दर्शन में मिथ्यात्व,अविरति, प्रमाद, J कषाय और योग ये पाँच कर्मबंध के कारण बतलाये हैं।.. संक्षेप में कहा जाय तो योग और कषाय कर्मबंध के कारण हैं। बंध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद बताये हैं। इनमें प्रकृति और प्रदेश बंध योगनिमित्तक हैं और स्थिति
और अनुभाग बंध कषाय निमित्तक हैं। उक्त चार वन्धों का स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं० २४७ में दिया गया है।
तत्त्वार्थ मूत्रकार ने योग को भी गौणता देकर कषाय को ही 2) कर्मबंध का प्रधान कारणमाना है । आठवें अध्याय में कहा है
'सकषायित्वाज्जीवो कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते' अर्थात्- कषाय सहित होने से जीव कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । कषाय के भी क्रोध मान माया लोभ आदि अनेक विकार हैं । इनका समावेश राग और द्वेष में हो जाता है । कोई भी मानसिक विकार हो वह राग द्वेष रूप होता है। यह भी अनुभव सिद्ध है कि साधारण प्राणियों की प्रवृत्ति के मूल में राग या द्वेष रहते हैं । यही राग द्वेषात्मक प्रवृत्ति मनुष्य को कर्मजाल में फसाती है । जैसे मकड़ी अपनी ही प्रवृत्ति से अपने बनाये हुए जाले में फंसती है। इसी प्रकार जीव भी स्वकीय राग द्वेषात्मक प्रवृत्ति से अपने को कर्म पुद्गलों के जाल में फंसा लेता है। राग द्वेष की वृद्धि के साथ ज्ञान भी विपरीत होकर मिथ्याज्ञान में परिवर्तित हो जाता है।
कर्मबन्ध का वर्णन करते हुए एक स्थान पर बतलाया है कि जिस प्रकार शरीर में तैल लगा कर कोई धूलि में लेटे तो धूलि