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श्री सेठिया जैन पन्थमाला
जीव अपने शुभाशुभ परिणामों के अनुसार कर्मों कोशुभाशुभ रूप में परिणत करते हुए ही ग्रहण करता है। इस प्रकार जीव के परिणाम कर्मों की शुभाशुभता के कारण हैं। दूसरा कारण है
आश्रय का स्वभाव । कमे के आश्रय भूत जीव का भी यह स्वभाव है कि वह कर्मों को शुभाशुभ रूप से परिणत करके ही ग्रहण करता है। इसी प्रकार शुभाशुभ भाव के आश्रय वाले कर्मों में भी ऐसी योग्यता रही हुई है कि वे शुभाशुभ परिणाम सहित जीव से ग्रहण किये जाकर ही शुभाशुभ रूप में परिणत होते हैं । प्रकृति, स्थिति और अनुभाग की विचित्रता तथा प्रदेशों के अल्प बहुत्व का भेद भी जीव कर्म ग्रहण करने के समय ही करता है । इसे समझाने के लिए आहार का दृष्टान्त दिया जाता है। सर्प और गाय को एक से दूध का आहार दिया जाता है तो सर्प के शरीर में वह दूध विष रूप से परिणत होता
है और गाय के शरीर में दूध रूप से । इसका कारण है . आहार और आहार करने वाले का स्वभाव । आहार का ऐसा
स्वभाव है कि वह एक सा होता हुआ भी आश्रय के भेद से भिन्न रूप से परिणत होता है। इसी प्रकार गाय और सर्प में भी अपनी अपनी ऐसी शक्ति रही हुई है कि वे एक से आहार को भी भिन्न भिन्न रूप से परिणत कर देते हैं । एक ही समय में पड़ी हुई वर्षा की बंदों का आश्रय के भेद से भिन्न भिन्न परिणाम देखा जाता है। जैसे स्वाति नक्षत्र में गिरी हुई बदें सीप के मुंह में जाकर मोती बन जाती हैं और सर्प के मुंह में जाकर विष। यह तो भिन्न भिन्नशरीरों में आहार की विचित्रता दिख'लाई। एक शरीर में भी एक से आहार की विचित्रता देखी
जाती है। शरीर द्वारा ग्रहण किया हुआआहार भी ग्रहण करते हुए सार असार रूप में परिणत हो जाता है एवं आहार का