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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
है । जैसे- अन्तकुल अर्थात् वरुड छिंपक आदि, मान्तकुल, चाण्डाल यदि । तुच्छ अर्थात् छोटे कुल, जिन में थोड़े आदमी हों अथवा श्रोछे हों, जिनका जाति बिरादरी में कोई सन्मान न हो । दरिद्र कुल, तर्कण वृत्तिवाले अर्थात् नट आदि के कुल, भीख मांगने वाले कुल, इस प्रकार के हीन कुलों में वह उत्पन्न होता है । इन कुलों में पुरुष रूप से उत्पन्न होकर भी वह कुरूप, भद्दे रंग वाला, बुरी गन्धवाला, बुरे रसवाला कठोर स्पर्शवाला, अनिष्ट,
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कान्त, अमिय, अमनोज्ञ, अमनोहर, हीन स्वरवाला, दीन स्वर वाला, अनिष्ट स्वरवाला, अकान्त स्वर वाला, अमिय स्वर वाला, अमनोज्ञ स्वरवाला, अमनोहर स्वरवाला तथा अनादेय वचनवाला होता है। नौकर चाकर या पुत्र स्त्री वगैरह उसका सन्मान नहीं करते। उसकी बात नहीं मानते । उसे आसन वगैरह नहीं देते। उसे अपना मालिक नहीं समझते। अगर वह कुछ बोलता है तो चार पाँच आदमी खड़े होकर कह देते हैं, बस, रहने दो, अधिक मत बोलो। इस प्रकार वह प्रत्येक जगह अपमानित होता रहता है। ५७६ - प्रतिक्रमण के आठ भेद और दृष्टान्त
( ठाणांग सूत्र ५६७)
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अशुभ योग से हटाकर आत्मा को फिर से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में लगाना प्रतिक्रमण कहलाता है। शुभ योग से अशुभ योग में गए हुए आत्मा का फिर शुभ योग में आना प्रतिक्रमण है ।
स्वस्थानात् यत् परस्थानं प्रमाद्स्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ क्षायोपशमिकाद्भावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूल गमात्स्मृतः ॥ २॥ अर्थात् - जो आत्मा अपने ज्ञान दर्शनादि रूप स्थान से प्रमाद