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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
लगने चाहिए । कर्णकटु न हों। साथ में अर्थगाम्भीर्य वाले भी हों। (ग) अनिश्रित- क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वशीभूत होकर कुछ नहीं कहना चाहिए। हमेशा शान्त चित्त से सब का हित करने वाला वचन बोलना चाहिए। (घ) असंदिग्धवचन- ऐसा वचन बोलना चाहिए जिसका आशय बिल्कुल स्पष्ट हो । श्रोता को अर्थ में किसी तरह का सन्देह उत्पन्न न हो। (५) वाचनासम्पदा-शिष्यों को शास्त्र आदि पढ़ाने की योग्यता · को वाचनासम्पदा कहते हैं। इस के भी चार भेद हैं- (क) विचयोदेश अर्थात् किस शिष्य को कौनसा शास्त्र, कौनसा अध्ययन, किस प्रकार पड़ाना चाहिए ? इन बातों का ठीक ठीक निर्देश करना । (स्व) विचयवाचना- शिष्य की योग्यता के अनुसार उसे वाचना देना । (ग) शिष्य की बुद्धि देखकर वह जितना ग्रहण कर सकता हो उतना ही पढ़ाना । (घ) अथेनियोपकत्वअर्थात् अर्थ को संगति करते हुए पढ़ाना । अथवा शिष्य जितने सूत्रों को धारण कर सके उतने ही पढ़ाना या अर्थ की परस्पर संगति, प्रमाण, नय, कारक, समास, विभक्ति आदि का परस्पर सम्बन्ध बताते हुए पढ़ाना या शास्त्र के पूर्वापर सम्बन्ध को अच्छी तरह समझाते हुए सभी अर्थों को बताना। (६) मतिसम्पदा-मतिज्ञान की उत्कृष्टता को मतिसम्पदा कहते हैं। इस के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनका स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं० २०० में बताया गया है ।अवग्रह आदि प्रत्येक के छः छः भेद हैं। (७) प्रयोगमतिसम्पदा (अवसर का जानकार)-शास्त्रार्थ या विवाद के लिए अवसर आदि की जानकारी को प्रयोगमति सम्पदा कहते हैं। इसके चार भेद हैं- (क) अपनी शक्ति को समझकर विवाद करे। शास्त्रार्य में प्रवृत्त होने से पहिले भलीभाँति समझ ले