________________ 404 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला और भविष्यकाल अन्त की अपेक्षा से। (7) द्विधाऽनन्तक- जो आदि और अन्त दोनों अपेक्षाओं से अनन्त हो / जैसे काल / / (8) देशविस्तारानन्तक- जो नीचे और ऊपर अर्थात् मोटाई की अपेक्षा अन्त वाला होने पर भी विस्तार की अपेक्षा अनन्त हो / जैसे- आकाश का एक प्रतर। आकाश के एक प्रतर की / मोटाई एक प्रदेश जितनी होती है इसलिए मोटाई की अपेक्षा उसका दोनों तरफ से अन्त है। लम्बाई और चौड़ाई की अपेक्षा वह अनन्त .. 1. है इसलिए देश अर्थात् एक तरफ से विस्तारानन्तक है। (8) सर्वविस्तारानन्तक- जो लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई.आदि सभी की अपेक्षा अनन्त हो वह सर्वविस्तारानन्तक है / जैसेआकाशास्तिकाय। (10) शाश्वतानन्तक- जिसके कभी आदि या अन्त न हों वह शाश्वतानन्तक है / जैसे जीव आदि द्रव्य / (ठाणांग, सूत्र 731) 721- संख्यान दस जिस उपाय से किसी वस्तु की संख्या या परिमाण का पता लगे उसे संख्यान कहते हैं / इसके दस भेद हैं-- (१)परिक्रम-जोड़,बाकी,गुणा,भाग आदि को परिक्रम कहते हैं। (2) व्यवहार- श्रेणी, व्यवहार वगैरह पाटी गणित में प्रसिद्ध अनेक प्रकार का गणित व्यवहार संख्यान है। (3) रज्जु- रस्सी से नाप कर लम्बाई चौड़ाई आदि का पता लगाना रज्जुसंख्यान है / इसी को क्षेत्र गणित कहते हैं। (4) राशि- धान वगैरह के ढेर का नाप कर या तोल कर परिमाण जानना राशिसंख्यान है। इसी को राशिव्यवहार भी कहते हैं। / (5) कलासवर्ण- कला अर्थात् वस्तु के अंशों को बराबर करके