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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३०॥
कि जब तक मेरे शरीर में उत्थान,कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम हैं और जबतकश्रमण भगवान महावीर स्वामी गंधहस्ती की तरह विचर रहे हैं तब तक मुझे संलेखना संथारा कर लेना चाहिए। इस प्रकार आनन्द श्रावक संलेखना संयारा कर धर्म ध्यान में समय बिताने लगा। परिणामों की विशुद्धता के कारण
और ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षयोपशम होने से प्रानन्द श्रावक को अवधिज्ञान उत्पन्न होगया । जिससे पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में लवण समुद्र में पाँच सौ योजन तक और उत्तर में चुल्ल हिमवान् पर्वत तक देखने लगा। ऊपर सौधर्म देवलोक और नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के लोलुयच्युत नामक नरकावासको, जहाँ चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक रहते हैं, जानने और देखने लगा। ___ इसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहाँपधार गये। उनके ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति अनगार (गौतम स्वामी) बेले बेले पारणा करते हुए उनकी सेवा में रहते थे। बेले के पारणे के दिन पहले पहर में स्वाध्याय, दूसरे पहर में ध्यान करके तीसरे पहर में चञ्चलता एवं शीघ्रता रहित सब से प्रथम मुखवत्रिका की और बाद में वस्त्र, पात्र आदि की पडिलेहणा की । तत्पश्चात् भगवान् की आज्ञा लेकर वाणियाग्राम नगर में गोचरी के लिए पधारे। ऊँच नीच मध्यम कुल से सामुदानिक भिक्षा करके वापिस लौट रहे थे। उस समय बहुत से मनुष्यों से ऐसा सुना कि आनन्द श्रावक पौषध शाला में संलेखना संथारा करके धर्मध्यान करता हुआ विचरता है । गौतम स्वामी भानन्द श्रावक को देखने के लिए वहाँ गये । गौतम स्वामी के दर्शन कर आनन्द श्रावक अति प्रसन्न हुआ और अर्ज की कि हे भगवन्! मेरी उठने की शक्ति