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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३०१ श्रावक ने भगवान् को वन्दना नमस्कार किया और इस प्रकार अर्ज करने लगा कि भगवन् ! मैंने आपके पास अब शुद्ध सम्यक्त्व - धारण की है इसलिए मुझे अब निम्नलिखित कार्य करने नहीं कल्पते-अन्यतीर्थिक, अन्यतीर्थियों के माने हुए देव,साधु आदि को वन्दना नमस्कार करना,उनके बिना बुलाये पहिले अपनी तरफ से बोलना,पालाप संलाप करना और गुरुबुद्धि से उन्हें प्रशन पान आदि देना। यहाँ पर जो अशनादि दान का निषेध किया गया है सो गुरुबुद्धि की अपेक्षा से है अर्थात् सम्यक्त्व धारी पुरुष अन्यतीर्थिकों (अन्य मतावलम्बियों)द्वारामाने हुए गुरु आदिको एकान्त निर्जरा के लिए अशनादि नहीं देता। इस का अर्थ करुणा दान (अनुकम्पा दान) का निषेध नहीं है, क्योंकि विपत्ति में पड़े हुए दीन दुखी प्राणियों पर करुणा (अनुकम्पा) करके दान आदि के द्वारा उनकी सहायता करना श्रावक अपना कर्तव्य समझता है। ___ सम्यक्त्वधारी पुरुष अन्यतीर्थिकों द्वारा पूजित देव आदि को वन्दना नमस्कार आदि नहीं करता यह उत्सर्ग मार्ग है। अपवाद मार्ग में इस विषय के ६ आगार कहे गये हैं (१) राजाभियोग (२) गणाभियोग (३) बलाभियोग (४) देवाभियोग (५) गुरुनिग्रह (६) वृत्तिकान्तार। • इन छः आगारों की विशेष व्याख्या इसके दूसरे भाग के छठे बोल संग्रह के बोल नं०.४५५ में दी गई है। आनन्द श्रावक ने भगवान् से फिर अजे किया कि हे भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रामुक और एषणीय आहार, पानी, वस्त्र, पात्रादि देना मुझे कल्पता है। तत्पश्चात् मानन्द श्रावक ने बहुत से प्रश्नोत्तर किये और भगवान् को वन्दना नमस्कार कर वापिस * इस विषय में मूल पाठ का स्पष्टीकरण परिशिष्ट में किया जाएगा।
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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