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________________ जी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २५३ (१०) विमर्शपतिसेवना- शिष्य की परीक्षा आदि के लिए की गई संयम की विराधना। (भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (ठाणांग, सूत्र ७३३) ६६७- आशंसा प्रयोग दस आशंसा नाम है इच्छा । इस लोक या परलोकादि में सुख आदि की इच्छा करना या चक्रवर्ती आदि पदवी की इच्छा करना आशंसा प्रयोग है । इसके दस भेद हैं(१) इहलोकाशंसा प्रयोग-मेरी तपस्या आदि के फल स्वरूप मैं इसलोक में चक्रवर्ती राजा बनें, इस प्रकार की इच्छा करना इहलोकाशंसा प्रयोग है। (२) परलोकाशंसा प्रयोग- इस लोक में तपस्या आदि करने के फल स्वरूप मैं इन्द्र या इन्द्र सामानिक देव बन, इस प्रकार परलोक में इन्द्रादि पद की इच्छा करना परलोकाशंसा प्रयोग है। (३)द्विधा लोकाशंसाप्रयोग-इस लोक में किये गये तपश्चरणादि के फल स्वरूप परलोक में मैं देवेन्द्र बनें और वहाँ से चव कर फिर इस लोक में चक्रवर्ती आदि बनँ, इस प्रकार इहलोक और परलोक दोनों में इन्द्रादि पद की इच्छा करना द्विधालोकाशंसा प्रयोग है । इसे उभयलोकाशंसा प्रयोग भी कहते हैं। ___सामान्य रूप से ये तीन ही आशंसाप्रयोग हैं, किन्तु विशेष विवक्षा से सात भेद और होते हैं। वे इस प्रकार हैं(४) जीविताशंसा प्रयोग-सुख के आने पर ऐसी इच्छा करना कि मैं बहुत काल तक जीवित रहूँ, यह जीविताशंसा प्रयोग है। (५) मरणाशंसा प्रयोग- दुःख के आने पर ऐसी इच्छा करना कि मेरा शीघ्र ही मरण हो जाय और मैं इन दुःखों से छुटकारा • पा जाऊँ, यह मरणाशंसा प्रयोग है। (६) कामाशंसा प्रयोग-मुझे मनोज्ञ शब्द और मनोज रूप
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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