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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
थोना होता है, इससे पश्चात्कर्म आदि दोष लगते हैं। इसलिए साधु को लेप करने वाली वस्तुएं न लेनी चाहिए। चना, चबेना श्रादि बिना लेप वाली वस्तुएं ही लेनी चाहिए। अधिक खाध्याय और अध्ययन आदि किसी खास कारण से या वैसी शक्ति न होने पर लेप वाले पदार्थ भी लेने कल्पते हैं। लेप वाली वस्तु लेते समय दाता का हाथ और परोसने का बर्तन संसृष्ट (जिस में दही आदि लगे हुए हों) अथवा असंसृष्ट होते हैं। इसी प्रकार दिया जाने वाला द्रव्य सावशेष (जोदेने से कुछ बाकी बच गया हो) या निरवशेष (जोबाकी न बचा हो) दो प्रकार का होता है। इन में आठ भांगे होते हैं-. (क) संसृष्ट हाय, संसृष्ट पात्र और सावशेष द्रव्यः ।
(ख) संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य । । (ग) संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र, सावशेष द्रव्य । (घ) संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र, निरवशेष द्रव्य । (ङ) असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र, सावशेष द्रव्य । (च) असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र, निरवशेष द्रव्य । (छ) असंसृष्ट हाथ, असंमृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य । (ज) असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र, निरवशेष द्रव्य। • इन आठ भंगों में विषम अर्थात् प्रथम, तृतीय, पञ्चम और सप्तम भंगों में लेप वाले पदार्थ ग्रहण किए जा सकते हैं। सम अर्थात् दूसरे,चौथे,छठे और आठवें भंग में ग्रहण न करना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि हाथ और पात्र संसृष्ट हों या असंसृष्ट, पश्चात्कर्म अर्थात् हाथ आदि का धोना इस बातपर निर्भर नहीं है। पश्चात्कर्म का होना या न होना द्रव्य के न बचने या बचने पर आश्रित है । अर्थात् अगर दिया जाने वाला पदार्थ कुछ बाकी बच जाय तो हाथ या कडुछी आदि के लिए होने पर