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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
के बीच से होता हुआ श्रावकों के पास आया। उसने कहाहे देवानुप्रियो ! शंखनी तो पौषधशाला में पोसा लेकर धर्म की
आराधना कर रहे हैं। वे अशन आदि का सेवन नहीं करेंगे। इसलिए आप लोग यथेच्छ आहार करते हुए धर्म की आराधना कीजिए। श्रावकों ने वैसा ही किया।
उसी रात्रि के मध्यभाग में धर्मजागरणा करते हुए शंख के मन में यह बात आई कि मुझे सुबह श्रमण भगवान् को वन्दना नमस्कार करके लौटकर पोसा पारना चाहिए। यह सोचकर वह सुबह होते ही पौषधशाला से निकला । शुद्ध, बाहर जाने के योग्य मांगलिक वस्त्रों को अच्छी तरह पहिन कर घर से बाहर आया । श्रावस्ती के बीच से होता हुआ पैदल कोष्ठक चैत्य में भगवान के पास पहुँचा। भगवान् को वन्दना की। नमस्कार किया। पर्यपासना (सेवाभक्ति) करके एक स्थान पर बैठ गया । उस समय शंखजी ने अभिगम नहीं किए।
भगवती सूत्र शतक २ उद्देशा ५ में निम्न लिखित पाँच अभिगम बताए गए हैं। धर्मस्थान में पहुँचने पर इनका पालन करके फिर वन्दना नमस्कार करना चाहिए ।
(१) अपने पास अगर कोई सचित्त वस्तु हो तो उसे अलग रख दे । (२) अचित्त वस्तुओं को न त्यागे । (३) अंगोछा या चद्दर वगैरह ओढ़ने के वस्त्र का उत्तरासङ्ग करे । (४) साधु वगैरह को देखते ही दोनों हाथ जोड़ कर ललाट पर रख ले। (५) मन को एकाग्र करे। इनका विशेष स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं. ३१४ में दे दिया गया है।
शंख श्रावक पोसे में आए थे। उनके पास सचित्तादि वस्तुएं नहीं थीं। इसलिए उन्होंने अभिगम नहीं किए।
दूसरे श्रावक भी सुबह स्नानादि के बाद शरीर को अलंकृत