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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
चारित्र कहते है। छेदोपस्थापनीय चारित्रधारी साधुओं के आचार की मर्यादा को छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति कहते हैं। यह चारित्र प्रथम एवं चरम तीर्थंकरों के साधुओं में ही होता है। इसलिए यह कल्पस्थिति भी उन्हीं साधुओं के लिये है।
सामायिक कल्पस्थिति में बताए हुए अवस्थित कल्प के चार और अनवस्थित कल्प के छः, कुल दसों बोलों का पालन करना छेदोपस्थापनीय चारित्र की मर्यादा है। (३) निर्विशमान कल्पस्थिति-परिहार विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार करने वाले पारिहारिक साधुओं की आचार मर्यादा को निर्विशमान कल्पस्थिति कहते हैं । पारिहारिक साधु ग्रीष्मकाल में जघन्य उपवास, मध्यम बेला और उत्कृष्ट तेला; शीतकाल में जघन्य बेला, मध्यम तेला और उत्कृष्ट चोला (चार उपवास) तथा वर्षाकाल में जघन्य तेला, मध्यम चोला और उत्कृष्ट पंचोला तप करते हैं । पारणे के दिन आयम्बिल करते हैं । संसृष्ट
और असंसष्ट पिण्डेषणाओं को छोड़ कर शेप पाँच में से इच्छानुसार एक से आहार और दूसरी से पानी लेते हैं, इस प्रकार पारिहारिक साधु छः मास तक तप करते हैं। (४) निर्विष्ट कायिक कल्पस्थिति–पारिहारिक तप पूरा करने के बाद जो वैयावृत्य करने लगते हैं, वे निर्विष्टकायिक कहलाते हैं। इन्हीं को अनुपारिहारिक भी कहा जाता है। इनकी मर्यादा निर्विष्टकायिक कल्पस्थिति कहलाती है। उनमें कुछ साधु पहले निर्विशमान कल्पस्थिति अङ्गीकार करते हैं, शेष इनकी सेवा करते हैं, फिर सेवा करने वाले तप करने लगते हैं और तप वाले वैयावच करने लगते हैं। नोट-चारित्रवान् और उत्कृष्ठ सम्यक्त्व धारी साधुओं का गण परिहार-विशुद्धि