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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
उत्सर्पिणी के छः आरे-दुषम दुषमा, दुषमा,दुषम सुषमा, सुषम दुषमा, सुषमा, सुषम सुषमा । (१) दुषमदुषमा-अवसर्पिणी का छठा अारा आषाढ़ मुदी पूनम को समाप्त होता है और सावण वदी एकम को चन्द्रमा के अभिजित् नक्षत्र में होने पर उत्सर्पिणी का दुपम दुषमा नामक प्रथम आरा प्रारम्भ होता है । यह आरा अवसर्पिणी के छठे आरे जैसा है। इसमें वर्ण,गन्ध,रस,स्पर्श आदि पर्यायों में तथा मनुष्यों की अवगाहना,स्थिति,संहनन और संस्थान आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। यह आरा इक्कीस हजार वर्ष का है। (२) दुषमा-इस आरे के प्रारम्भ में सात दिन तक,भरतक्षेत्र जितने विस्तार वाले पुष्कर संवर्तक मेघ बरसेंगे। सात दिन की इस वर्षा से छठे आरे के अशुभ भाव रूक्षता उष्णता आदि नष्ट हो जायँगे । इसके बाद सात दिन तक क्षीर मेघ की वर्षा होगी। इससे शुभ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की उत्पत्ति होगी। क्षीर मेघ के बाद सात दिन तक घृत मेघ बरसेगा । इस वृष्टि से पृथ्वी में स्नेह (चिकनाहट) उत्पन्न हो जायगा । इसके बाद सात दिन तक अमृत मेघ वृष्टि करेगा जिसके प्रभाव से वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि वनस्पतियों के अंकुर फूटेंगे। अमृत मेघ के बाद सात दिन तक रसमेघ बरसेगा । रसमेघ की वष्टि से वनस्पतियों में पांच प्रकार का रस उत्पन्न होगा और उनमें पत्र, प्रवाल, अंकुर, पुष्प, फल की वृद्धि होगी। नोट-क्षीर, घृत, अमृत और रस मेघ पानी ही बरसाते हैं पर इनका पानी क्षीर घृत आदि की तरह गुण करने वाला होता है इसलिए गुण की अपेक्षा क्षीरमेघ
आदि नाम दिये गये हैं। . उक्त प्रकार से वष्टि होने पर जब पृथ्वी सरस हो जायगी तथा वृक्ष लतादि विविध वनस्पतियों से हरी भरी और रमणीय