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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(४) हीयमान-जैसे अग्नि की ज्वाला नवीन ईंधन न पाने से क्रमशः घटती जाती है उसी प्रकार जो अवधिज्ञान संक्लेशवश परिणाम विशुद्धि के घटने से उत्पत्ति समय की अपेक्षा क्रमशः घटता जाता है वह हीयमान अवधिज्ञान है। (५) प्रतिपाती-जो अवधिज्ञान उत्कृष्ट सर्व लोक परिमाण विषय करके चला जाता है वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है। (६) अप्रतिपाती-जो अवधिज्ञान भवक्षय या केवल ज्ञान होने से पहले नष्ट नहीं होता वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है।
जिस अवधिज्ञानी को सम्पूर्ण लोक से आगे एक भी प्रदेश का ज्ञान हो जाता है उसका अवधिज्ञान अप्रतिपाती समझना चाहिये। यह बात सामर्थ्य (शक्ति) की अपेक्षा कही गई है। वास्तव में अलोकाकाश रूपी द्रव्यों से शून्य है इसलिए वहाँ अवधिज्ञानी कुछ नहीं देख सकता । ये छहों भेद तिर्यञ्च और मनुष्य में होने वाले क्षायोपशमिक अवधिज्ञान के हैं।
(ठा० ६ ० ५२६) ( नंदीसूत्र ६ से १६) ४२९-अर्थावग्रह के छः भेद :___ इन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषयों का अस्पष्ट ज्ञान अवग्रह कहलाता है । इसके दो भेद हैं-व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह ।' जिस प्रकार दीपक के द्वारा घटपटादि पदार्थ प्रकट किये जाते हैं उसी प्रकार जिसके द्वारा पदार्थ व्यक्त अर्थात् प्रकट हों ऐसे विषयों के इन्द्रियज्ञान योग्य स्थान में होने रूप सम्बन्ध को व्यञ्जनावग्रह कहते हैं । अथवा दर्शन द्वारा पदार्थ का सामान्य प्रतिभास होने पर विशेष जानने के लिए इन्द्रिय और पदार्थों का योग्य देश में मिलना व्यञ्जनावग्रह है।