________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 435 में नहीं समाता / इसलिये सभी वादियों का सिद्धान्त जैनमत है, किन्तु किसी वादी का मत जैनधर्म नहीं है। (नय चक्र) (नय प्रदीप) (नय विवरण) (नयोपदेश ) (आलाप पद्धति) 563- सप्तभंगी जब एक वस्तु के किसी एक धर्म के विषय में प्रश्न करने पर विरोध का परिहार करके व्यस्त और समस्त, विधि और निषेध की कल्पना की जाती है तो सात प्रकार के वाक्यों का प्रयोग होता है, जो कि स्यात्कार से चिह्नित होते हैं / उस सप्त प्रकार के वाक्यप्रयोग को सप्तभङ्गी कहते हैं / वे सात भङ्ग इस प्रकार हैं- (1) स्यादस्त्येव (२)स्यानास्त्येव (3) स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव (4) स्यादवक्तव्यमेव (5) स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेव (6) स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव (7) स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव / हिन्दी भाषा में इन सातों भङ्गों के नाम ये हैं(१) कथञ्चित् है (2) कथञ्चित् नहीं है (3) कथञ्चित् है और नहीं है (4) कथञ्चित् कहा नहीं जा सकता (5) कथञ्चित् है, फिर भी कहा नहीं जा सकता (6) कथञ्चित् नहीं है, फिर भी कहा नहीं जा सकता (7) कथिञ्चत् है, नहीं है, फिर भी कहा नहीं जा सकता। __ वस्तु के विषय भूत अस्तित्व आदि प्रत्येक पर्याय के धर्मों के सात प्रकार के ही होने से व्यस्त और समस्त, विधि निषेध की कल्पना से सात ही प्रकार के संदेह उत्पन्न होते हैं। इसलिए वस्तु के विषय में सात ही प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होने के कारण उसके विषय में सात ही प्रकार के प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं और उनका उत्तर इन प्रकार के वाक्यों द्वारा दिया जाता है। मूल भङ्ग अस्ति और नास्ति दो हैं। दोनों की युगपद्