________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 429 असत् रूप है। शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय की दृष्टि से प्रस्थक स्वरूप का ज्ञान और जानकार ही प्रस्थक है। अपने प्रस्थक निर्माण के उपयोग में लगा हुआप्रस्थक का कर्ता ही प्रस्थक है। वसति का दृष्टान्त किसी ने पाटली पुत्र में रहने वाले किसी मनुष्य को पूछाप्र.-आप कहाँ रहते हैं ? उ०-मैं लोक में रहता हूँ (अविशुद्ध नैगम नय के व्यवहार से) प्र०-लोक तीन हैं-उज़लोक,अधोलोक और तिर्यक् लोक / क्या आप तीनों ही लोकों में रहते हैं ? उ०-- मैं केवल तिर्यकलोक में ही रहता हूँ। ( यह विशुद्ध नैगम नय का वचन है) प.- तिर्यक् लोक में जम्बूद्वीप से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्य द्वीप समुद्र हैं, तो क्या आप उन सभी में रहते हैं ? उ०- मैं जम्बूद्वीप में रहता हूँ। ( यह विशुद्धतर नैगम नय है) प्र०- जम्बूद्वीप में ऐरावतादि दस क्षेत्र हैं तो क्या आप उन सब में रहते हैं ? उ०- मैं भरतक्षेत्र में रहता हूँ। ( विशुद्धतर नैगम ) प्र०- भारतवर्ष के दो खंड हैं-दक्षिणार्द्ध और उतरार्द्ध, तो क्या आप उन दोनों में रहते हैं ? उ०-- मैं दक्षिणार्द्ध भारतवर्ष में रहता हूँ। (विशुद्धतर नैगम) प्र०- दक्षिणार्द्ध भारतवर्ष में भी अनेक ग्राम, आकर, नगर, खेड़े, शहर, मण्डप, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संवाह, सनिवेश आदि स्थान हैं। तो क्या आप उन सभी में रहते हैं ? उ०- मैं पाटलीपुत्र में रहता हूँ (विशुद्धतर) प्र०- पाटलीपुत्र में अनेक घर है क्या आप उन सभी घरों में