________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 425 होता है। जैसे-केवलज्ञान रूप गुण से सहित निरुपाधिक आत्मा। ___ असद्भूत व्यवहार नय के भी दो भेद हैं। उपचरित असद्भूत व्यवहार और अनुपचरित असद्भूत व्यवहार / सम्बन्ध रहित वस्तु में सम्बन्ध को विषय करने वाला उपचरित असद्भुत है अर्थात् सम्बन्ध का योग न होने पर कल्पित सम्बन्ध मानने पर उपचरित असद्भुत व्यवहार होता है। जैसे देवदत्त का धन / यहाँ पर देवदत्त का धन के साथ स्वाभाविक रूप से सम्बन्ध माना गया है। वह कल्पित होने से उपचरित सिद्ध है, क्योंकि देवदत्त और धन ये दोनों एक द्रव्य नहीं हैं। इसलिए भिन्न द्रव्य होने से देवदत्त तथा धन में सद्भूत (यथार्थ) सम्बन्ध नहीं है। अतः असद्भूत करने से उपचरित असद्भूत व्यवहार है। ___ सम्बन्ध सहित वस्तु में सम्बन्ध को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत है। यह भेद जहाँ कर्म जनित सम्बन्ध है वहाँ होता है। जैसे- जीव का शरीर / यहाँ पर आत्मा और शरीर का सम्बन्ध देवदत्त और उसके धन के सम्बन्ध के समान कल्पित नहीं है, किन्तु यावज्जीव स्थायी होने से अनुपचरित है तथा जीव और शरीर के भिन्न होने से असद्भूत व्यवहार है। (द्रव्यानुयोगतर्कणा) __इन सातों नयों में पहिले पहिले के नय बहुत या स्थूल विषय वाले हैं। आगे आगे के नय अल्प या सूक्ष्म विषय वाले हैं / __ नैगम नय का विषय सत् और असत् दोनों ही पदार्थ हैं, क्योंकि सत् और असत् दोनों में संकल्प होता है / संग्रह नय केवल सत् को ही विषय करता है / व्यवहार संग्रह के टुकड़ों को जानता है / व्यवहार से ऋजुमूत्र सूक्ष्म है, क्योंकि ऋजुसूत्र में सिर्फ वर्तमान काल की ही पर्याय विषय होती है / ऋजुसूत्र से शब्द नय सूक्ष्म है, क्योंकि ऋजुमूत्र में तो लिंगादि का भेद होने पर भी अर्थभेद नहीं माना जाता जब किशब्द नय मानता