________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 415 नय कहलाता है, क्योंकि यह नय द्रव्य कहने से जीव और अजीव के भेद को न मानकर सब द्रव्यों को ग्रहण करता है। द्रव्यत्वादि अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाला और उनके भेदों की उपेक्षा करने वाला अपरसंग्रह नय है। जैसे 'जीव' कहने से सब जीव द्रव्यों का ग्रहण तो हुश्रा, परन्तु अजीव द्रव्य रह गया / इसलिए यह नय विशेष संग्रह नय है। (रत्नाकरावतारिका अध्याय 7) (3) व्यवहार नय-लौकिक व्यवहार के अनुसार विभाग करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं। जैसे-जो सत् है, वह द्रव्य है या पर्याय / जो द्रव्य है, उस के जीवादि छः भेद हैं / जो पर्याय है उसके सहभावी और क्रमभावी ये दो भेद हैं। इसी प्रकार जीव के संसारी और मुक्त दो भेद हैं / इत्यादि / सब द्रव्यों और उनके विषयों में सदा प्रवृत्ति करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय लोक व्यवहार का अङ्ग न होने के कारण सामान्य को नहीं मानता। केवल विशेष को ही ग्रहण करता है, क्योंकि लोक में विशेष घटादि पदार्थ जलधारण आदि क्रियाओं के योग्य देखे जाते हैं / यद्यपि निश्चय नय के अनुसार घट आदि सब, अष्टस्पर्शी पौद्गलिक वस्तुओं में पांच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस आठ स्पर्श होते हैं, किन्तु बालक और स्त्रियाँ जैसे साधारण लोग भी जहाँ कहीं एक स्थल में काले या नीले आदि वर्गों का निश्चय करते हैं , उसी का लोकव्यवहार के योग्य होने के कारण वे सत् रूप से प्रतिपादन करते हैं और शेष का नहीं। (अनुयोगद्वर लक्षणद्वार ) __ व्यवहार से कोयल काली है, परन्तु निश्चय से कोयल में पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श पाए जाते हैं। इसी प्रकार नरम गुड़ व्यवहार से मीठा है, परन्तु निश्चय नय