________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह गए / इसी तरह आलातचक्र (लाठी के दोनों कोनों पर आग लगा कर घुमाने से बनने वाला अग्निचक्र) घुमाने से ऐसा मालूम पड़ता है जैसे वह अग्नि का एक चक्कर है, जिसके चारों ओर आग फैल रही है / वास्तव में ऐसा नहीं है। जिस तरह इन दोनों स्थानों पर शीघ्रता के कारण भ्रान्ति हो जाती है / उसी तरह मन की शीघ्रता के कारण कालभेद होने पर भी ऐसी भ्रान्ति हो जाती है कि हम दो क्रियाओं का अनुभव एक साथ कर रहे हैं। __ मन भी एक साथ दो इन्द्रियों या इन्द्रिय के देशों के साथ सम्बद्ध नहीं होता / केवल शीघ्रगामी होने से सब के साथ सम्बद्ध की तरह मालूम पड़ता है। जैसे सूखी तिलपापड़ी खाते समय उसके शब्द रूप रस गंध और स्पर्श का अनुभव एक साथ मालूम पड़ता है।अथवा दूध, मीठा और पानी का स्वाद एक साथ मालूम पड़ता है / वास्तव में सभी ज्ञानों के क्रमिक होने पर भी शीघ्रता के कारण एक साथ मालूम पड़ते हैं / इसी तरह शीत और उष्ण का स्पर्श पैर और सिर में क्रमिक होने पर भी एक साथ मालूम पड़ता है। अगर ज्ञानों को क्रमिक न माना जाय तो सांकर्य आदि दोष आजाते हैं। मतिज्ञानोपयोग के समय अवधिज्ञानोपयोग होने लगेगा। घटज्ञान के साथ हीअनन्त पदार्थों काभान होने लगेगा किन्तु यह बात अनुभव विरुद्ध है / ज्ञानों के क्रमिक होने पर भी ज्ञाता एक साथ उत्पत्ति मानता है। समय आवलिका आदि काल का विभाग अत्यन्त मूक्ष्म होने से उसे मालूम नहीं पड़ता। एक साथ ज्ञान को उत्पन्न न होने देना मन का धर्म है / इस लिए एक ही साथ शीतोष्णादि का अनुभव नहीं हो सकता। यदि एक वस्तु में उपयुक्त मन भी दूसरी वस्तु को जान सकता है तो दूसरी तरफ ध्यान में लगा हुआ कोई व्यक्ति सामने