________________ 356 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अन्तिम कण लेकर बहराने लगा। तिष्यगुप्त ने कहा- श्रावक ! तुम इस तरह मेरा अपमान कर रहे हो ? श्रावक ने कहा- महाराज ! यह तो आपका मत है कि वस्तु का अन्तिम अवयव सारे का काम कर सकता है। यदि भात वगैरह का यह अन्तिम अंश तुधानिवृत्ति रूप अपना कार्य नहीं कर सकता तो जीव के अत्यन्त सूक्ष्म एक प्रदेश में सारा जीव कैसे रह सकता है ? एक ही अन्तिम तन्तु पट नहीं कहा जा सकता क्योंकि उससे पट का कार्य शीतनिवारण नहीं हो सकता। अगर बिना पट का कार्य किए भी अन्तिम तन्तु को पट कहा जाय तो घट को भी पट कहना चाहिए / अनुमान- केवल अन्त्यावयव (अन्तिम भाग) में अवयवी(पदार्थ) नहीं रहता क्योंकि वह दिखाई नहीं देता। दिखाई देने की योग्यता होने पर भी जो वस्तु जहाँ दिखाई नहीं देती वह वहाँ नहीं रहती / जिस तरह आकाश में फुल / अन्तिम प्रदेश में जीव का व्यवहार नहीं होने से भी वह वहाँ नहीं रहता / अवयवी अन्त्यावयव मात्र है, क्योंकि अवयवी अन्तिम अवयव से ही पूर्ण होता है। यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें कोई दृष्टान्त नहीं है। प्रत्यक्ष अनुमान या आगम से वस्तु की सिद्धि होती है / जीवप्रादेशिक मत इन सब से विरुद्ध होने के कारण मिथ्या है। श्रावक द्वारा इस तरह समझाया जाने पर तिष्यगुप्त उसकी बात मान गया / श्रावक ने क्षमायाचना करके उन्हें आहार बहराया।साधु तिष्यगुप्त अपने गुरु के पास चले आए और सम्यक् मार्ग अङ्गीकार करके गुरु की आज्ञानुसार विचरने लगे। (3) अव्यक्तदृष्टि- भगवान् महावीर की मुक्ति के दो सौ चौदह साल बाद तीसरा निव हुआ इसके मत का नाम था,अव्यक्तदृष्टि।