________________ 354 भी सेठिया जैन प्रन्थमाला तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रथम से लेकर अन्तिम तक सभी प्रदेश पूरक हैं। किसी भी एक के बिना जीव अधूरा है / इस तरह जब सभी जीवप्रदेश पूरक होजायँगे तो अन्तिम की तरह सभी को जीव मानना पड़ेगा और जितने प्रदेश हैं उतने ही जीव हो जायँगे अथवा प्रथम प्रदेश की तरह सभी प्रदेश अजीव हो जायँगे और उनसे बना हुआ जोव भी जीव न रहेगा। अगर यह कहा जाय कि सभी प्रदेशों के पूरक होने पर भी अन्तिम प्रदेश ही जीव है दूसरे नहीं, तो यह बात मनमानी कल्पना कही जायगी / इस का कोई आधार नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि प्रथम प्रदेश ही जीव है, अन्य सब अजीव हैं। अपनी इच्छानुसार कुछ प्रदेशों को जीव तथा कुछ को अजीव कहा जा सकता है। जो वस्तु सभी अवयवों में व्याप्त नहीं रहती वह सब के मिल जाने पर भी पैदा नहीं हो सकती। जब प्रथमादि भिन्न भिन्न प्रदेशों में जीवत्व नहीं है तो सब के मिल जाने पर अन्तिम प्रदेश में जो उन्हीं के समान है जीवत्व कैसे आ सकता है अन्तिम प्रदेश के अतिरिक्त दूसरे प्रदेशों में जीव आंशिक रूप से रहता है किन्तु अन्तिम प्रदेश में पूर्ण रूप से रहता है। यह कहना भी ठीक नहीं है। ___ अन्तिम प्रदेश में भी जीव सर्वात्मना नहीं रह सकता, क्योंकि वह प्रदेश भी दूसरे प्रदेशों के समान ही है / जो हेतु अन्तिम प्रदेश में सम्पूर्ण जीवत्व का साधक है उसी हेतु से दूसरे प्रदेशों में भी सम्पूर्ण जीवत्व सिद्ध किया जा सकता है। शास्त्र का अर्थ यह नहीं है कि प्रथमादि प्रदेश अजीव हैं और अन्तिम जीव है, किन्तु अन्तिम भी एक होने के कारण अजीव है / सभी प्रदेशों के मिलने पर ही जीव माना जाता है।