________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 351 हो और क्रिया दूसरे समय में ? ऐसा कभी नहीं होता कि छेद क्रिया वट में हो और छेद पलाश में। यदि क्रिया समाप्त होने पर ही कार्य उत्पन्न होता है तो इस का अर्थ यह हुआ कि क्रिया कार्य की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक है। ऐसी दशा में क्रिया कारण नहीं रहेगी और प्रत्यक्ष विरोध हो जायगा / यदि क्रिया के बिना भी कार्य उत्पन्न होता है तो घटार्थी के लिए मिट्टी लाना, पिण्ड बनाना आदि क्रियाएं व्यर्थ हो जाएँगी / मोक्षार्थी को भी तप आदि की आवश्यकता न रहेगी। लेकिन यह बात नहीं है। इसलिए क्रियाकाल में ही कार्य की उत्पत्ति माननी चाहिए, समाप्ति होने पर नहीं। शङ्का- मिट्टी लाने से लेकर घट की उत्पत्ति तक सारा समय घटोत्पत्तिकाल कहा जाता है / व्यवहार भी इसी प्रकार होता है, क्योंकि मिट्टी को चाक पर चढ़ाते समय भी यह कहा जाता है-' घट बन रहा है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि अन्तिम क्षण ही घटोत्पत्तिक्षण है। उत्तर- यह युक्ति ठीक नहीं है। घट उत्पन्न होने से पहले के क्षणों में घटोत्पत्ति का व्यवहार इसलिए होता है कि लोग घट को प्राप्त करना चाहते हैं। घट की प्राप्ति के अनुकूल होने वाले सभी कार्यों को घटकार्य मान लेते हैं। इस व्यवहार का आधार वास्तविक सत्य नहीं है / वास्तव अर्थात् निश्चय से तो प्रत्येक क्षण में नए नए कार्य उत्पन्न होते रहते हैं। उन में से कुछ स्थूल अवस्थाएं साधारण लोगों को मालूम पड़ती हैं। प्रत्येक समय होने वाली सूक्ष्म अवस्थाएं केवली ही जान सकते हैं। शङ्का- कार्योत्पत्ति का समय लम्बा नहीं माना जाता / एक ही क्षण कार्य का समय है तो उसका नियामक क्या है ? अन्तिम क्षण में ही घट क्यों उत्पन्न होता है, प्रारम्भ या बीच