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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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कहते हैं। जो नारक एक भी प्रदेश न्यून आहार करते हैं वे वीचिद्रव्य का आहार करते हैं। जो पूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं वे अवीचिद्रव्यों का आहार करते हैं । नारकों का आहार पुद्गलरूप होता है और पुद्गलरूप से परिणमता है । नारकों के उत्पत्तिस्थान अत्यन्त शीत तथा अत्यन्त उष्ण पुद्गलों के होते हैं। आयुष्य कर्म के पुद्गल नारकी जीव की नरक में स्थिति के कारण हैं। प्रकृत्यादि बन्धों के कारण कर्म जीव के साथ लगे हुए हैं और नरकादि पर्यायों के कारण होते हैं।
(भगवती शतक १४ उद्देशा ६) नरकों का अन्तर- रत्नप्रभा आदि सातों पृथ्वियों का परस्पर असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। सातवीं तमस्तमःप्रभा और अलोकाकाश का भी असंख्यात लाख योजन अन्तर है। रत्नप्रभा और ज्योतिषी विमानों का सात सौ नव्ये योजन अन्तर है।
_ (भगवती शतक १४ उद्देशा ८) संस्थान-संस्थान छः हैं-परिमंडल (वलयाकार), वृत्त (गोल) व्यस्र (त्रिकोण), चतुरस्र (चतुष्कोण), आयत (दीर्घ) और अनित्थंस्थ(परिमंडल आदि से भिन्न आकारवाला अर्थात् अनवस्थित) सातों पृथ्वियों में आयत संस्थान तक के पांचों संस्थान अनन्त हैं।
युग्म अर्थात् राशि- जिस राशि में से चार चार कम करते हुए शेष चार बच जाय उसे कृतयुग्म कहते हैं । तीन बचें तो योज कहते हैं । दो बचें तो द्वापरयुग्म तथा एक बचे तोकल्योज कहते हैं । नरकों में चारों युग्म होते हैं।
(भगवती शतक १४ उद्देशा ६) आयुबन्ध-क्रियावादी नैरयिक मनुष्यगति की आयु ही बांधते हैं। अक्रियावादी तिर्यश्च और मनुष्य दोनों की आयुबांधते हैं।
(भगवती शतक ३० उद्देशा१) (जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३) (भगवती शतक १ उद्देशा ५)