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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
व्युत्क्रान्ति (६) शाश्वत अशाश्वत (१०) उपपात - किस नारकी में कौन से जीव उत्पन्न होते हैं। (११) एक समय में कितने जीव उत्पन्न होते हैं तथा कितने मरते हैं (१२) अवगाहना (१३) संहनन (१४) संस्थान (१५) नारकी जीवों का वर्ण, गन्ध स्पर्श तथा उच्छ्वास (१६) आहार (१७) लेश्या (१८) दृष्टि (१६) ज्ञान (२०) योग (२१) उपयोग (२२) समुद्घात (२३) क्षुधा तथा प्यास (२५) विक्रिया (२५) वेदना तथा भय (२६) उष्ण वेदना शीतवेदना (२७) स्थिति (२८) उद्वर्त्तना (२६) पृथ्वियों का स्पर्श (३०) उपपात +
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( जीवाभिगम सूत्र तृतीय प्रतिपत्ति उद्देशा १, २, ३) वेदना और निर्जरा - कर्म का फल पूरी तरह भोगने को वेदना कहते हैं । कर्मफल को बिना प्राप्त किए ही तपस्या आदि के द्वारा कर्मों को खपा डालना निर्जरा है । वेदना से कर्मों का क्षय तो होता है लेकिन पूरा फल भोगने के बाद । नारकी जीव कर्मों की वेदना तो करते हैं किन्तु निर्जरा नहीं । वेदना और निर्जरा का समय भी भिन्न भिन्न है । कर्मों का उदय होने पर फल भोगना वेदना है और वेदना के बाद कर्मों का अलग हो जाना निर्जरा है। भगवती सूत्र में यह बात प्रश्नोत्तर के रूप में दी गई है । उसका सारांश ऊपर लिखा है । ( भगवती शतक ७ उद्देशा ३ ) परिचारणा- नारकी जीव उत्पन्न होते ही आहार ग्रहण करते हैं। बाद में उनके शरीर की रचना होती है। फिर पुगलों का ग्रहण और शब्द आदि विषयों का सेवन करते हैं । उस के बाद परिचारणा और विकुर्वणा (वैक्रिय लब्धि के द्वारा शरीर
+ जो विषय प्रवचनसारोद्धार के प्रकरण से पहिले लिखे जा चुके हैं वे यहाँ दुबारा नहीं दिये गए हैं ।