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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पुनर्वसु के बाद होता है। रोहिणी मृगशीर्ष का पूर्वचर है । इस बात को समझने के लिये नक्षत्रों का उदय क्रम जान लेना चाहिए। वह इस तरह है- रोहिणी, मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुनर्वसु और पुष्य । (६) विरुद्धउत्तरचरोपलब्धि- जहाँ उत्तरचर अर्थात् बाद में
आने वाला प्रतिषेध्य का विरोधी हो। जैसे-एक मुहूर्त के पहिले मृगशिरा का उदय नहीं हुआ था, क्योंकि अभी पूर्वाफाल्गुनी का उदय है। यहाँ मृगशीर्ष का उदय प्रतिषेध्य है । उसका विरोधी है मघा का उदय क्योंकि मृगशिरा के बाद आर्द्रा का उदय होता है । मघा का उत्तरचर है पूर्वाफाल्गुनी । यहाँ नक्षत्रों का उदय क्रम इस प्रकार है- मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, और पूर्वाफाल्गुनी।। (७) विरुद्धसहचरोपलब्धि- जहाँ दो वस्तुओं का एक साथ . रहना असम्भव हो, ऐसी जगह एक के रहने से दूसरी का निषेध ___ करना । जैसे- इसे मिथ्याज्ञान नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन
है। मिथ्याज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों एक साथ नहीं रहते। ___ इसलिए सम्यग्दर्शन के होने से मिथ्याज्ञान का अभाव सिद्ध
कर दिया गया। (रत्नाकरावतारिका तृतीय परिच्छेद सूत्र ८३-६२) ५५६- अविरुद्धानुपलब्धि के सात भेद
प्रतिषेध्य से अविरुद्ध वस्तु का न होना अविरुद्धानुपलब्धि है। जिन दो वस्तुओं में एक साथ रहना निश्चित है उन में एक के न रहने पर दूसरी का प्रतिषेध किया जाता है। इस हेतु के सात भेद हैं(१) अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि- जहाँ प्रतिषेध्य वस्तु से अविरुद्ध अर्थात् नियमित रूप से रहने वाले स्वभाव के न रहने से स्वभाव वाली वस्तु का प्रतिषेध किया जाय । जैसे इस जगह घड़ा नहीं है, क्योंकि आँखों से दिखाई देना रूप उस