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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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हैं। यह योग विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के समय सब जीवों में होता है। केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में केवली को होता है।
(भगवती शतक २५ उद्देशा १ ) (द्रव्यलोक पृष्ठ ३५८ ) ( कर्मग्रन्थ ४ गाथा ४) ५४८-समुद्घात सात
वेदना आदि के साथ एकाकार हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीय आदि कर्म प्रदेशों को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर उनकी प्रबलता पूर्वक निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। इसके सात भेद हैं(१)वेदना समुद्घात-वेदना के कारण से होने वाले समुद्घात को वेदना समुद्घात कहते हैं। यह असाता वेदनीय कर्मों के आश्रित होता है। तात्पर्य यह है कि वेदना से पीड़ित जीव अनन्तानन्त कम स्कन्धों से व्याप्त अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और उन से मुख उदर आदि छिद्रों और कान तथा स्कन्धादि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और विस्तार में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरता है। उस अन्तर्मुहूर्त में प्रभूत असाता वेदनीय कर्म पुद्गलों की निर्जरा करता है। (२)कषाय समुद्घात-क्रोधादि के कारण से होने वाले समुद्घात को कपाय समुद्घात कहते हैं। यह कषाय मोहनीय के आश्रित है अर्थात् तीव्र कषाय के उदय से व्याकुल जीव अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर और उनसे मुख और पेट आदि के छिद्रों
और कान एवं स्कन्धादि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और विस्तार में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और प्रभूत कषाय कर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है। (३)मारणान्तिक समुद्घात-मरण काल में होने वाले समुद्घात को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। यह अन्तर्मुहर्त शेष आयु