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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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के विषय में पूछा- वह कैसी है ? मंत्री ने उत्तर दिया-संसार में उस सरीखी कोई नहीं है । राजा का मल्लिकुँवरी के प्रति अनुराग हो गया और उसे वरने के लिए दूत भेज दिया।
दूसरा साथी चन्द्रच्छाय नाम से चम्पानगरी राजधानी में अङ्ग देश का राज्य कर रहा था। वहीं पर अर्हन्त्रक नाम का श्रावक पोतवणिक् रहता था। एक बार यात्रा से लौटने पर वह एक जोड़ा कुण्डल राजा को भेट देने के लिए लाया। राजा ने पूछा- तुमने बहुत से समुद्र पार किए हैं। क्या कोई आश्चर्यजनक वस्तु देखी ? श्रावक ने कहा इस यात्रा में मुझे धर्म से विचलित करने के लिए एक देव ने बहुत उपसर्ग किए । अन्त तक विचलित न होने से सन्तुष्ट होकर उसने दो जोड़े कुण्डल दिए। एक हमने कुम्भराजा को भेट कर दिया। राजा ने उसे अपनी मल्लि नाम की कन्या को स्वयं पहिनाया। वह कन्या तीनो लोकों में आश्चर्यभूत है । यह सुनकर चन्द्रच्छाय राजा ने भी उसे वरने के लिए दूत भेज दिया।
तीसरा साथी श्रावस्ती नगरी में रुक्मी नाम का राजा हुआ। एक दिन उसने अपनी कन्या के चौमासी स्नान का उत्सव मनाने के लिए नगरी के चौराहे में विशाल मण्डप रचाया। कन्या स्नान करके सब वस्त्र आदि पहिन कर अपने पिता के चरणों में प्रणाम करने के लिए आई । राजा ने उसे गोद में बैठाकर उसके सौन्दर्य को देखते हुए कहा, वर्षधर ! क्या तुमने किसी कन्या का ऐसा स्नानमहोत्सव देखा है ? उसने उत्तर दिया- विदेहराज की कन्या के स्नानमहोत्सव के सामने यह उसका लाखवां भाग भी नहीं है। राजा वर्षधर से मल्लिकुँवरी की प्रशंसा सुन कर उसकी ओर आकृष्ट हो गया और उसे वरने के लिए दूत भेज दिया।