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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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उद्दवयव्वं ति मनसि । अंजू चेय पडिबुद्धजीवी तम्हा ण हंता, ण विधायए, अणुसंवेयमप्पाणेणं, जं हंतव्वं णाभिपत्थए (भाचारांग श्रुतस्कन्ध १ मध्ययन ५ उद्देशा ५ सूत्र ३२०) _ 'हे पाणी ! तू जिसे मारने योग्य समझता है उसकी जगह स्वयं अपने को समझ । तू जिस पर हुक्म चलाना चाहता है उसके स्थान पर अपने को मान । तू जिसे कष्ट देना चाहता है उसके स्थान पर अपने को मान । तू जिसको कैद करना चाहता है उसकी जगह अपने को मान । तू जिसे मार डालना चाहता है उसकी जगह भी अपने को ही समझ । इस प्रकार की समझ को धारण करने वाला ऋजु अर्थात् सरल होता है। न किसी को कष्ट देना चाहिए न मारना चाहिए। कष्ट देने या मारने से पीछे स्वयं कष्ट उठाना पड़ता है ऐसा जान कर किसी को मारने का इरादा न करना चाहिए।' इस प्रकार जैनदर्शन में बताया गया है कि दूसरे के कष्ट को अपना ही दुःख समझना चाहिए । जो व्यक्ति दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझेगा वह दूसरे को कष्ट देने की इच्छा भी नहीं कर सकता । उल्टा दुखी पाणी के दुःख को दूर करने का प्रयत्न करेगा। इस प्रकार सभी प्राणी परस्पर सद्भाव सीखते हैं और इसी सद्भाव से विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है।
स्याहाद जैन दर्शन की दूसरी विशेषता स्याद्वाद है । इसका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। स्याद्वाद से सभी तरह के साम्पदायिक झगड़ों का निपटारा हो जाता है और वस्तु को पूर्ण रूप से समझने की शक्ति आती है जिससे मनुष्य वस्तु के सच्चे .