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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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वस्तु अपने पास रखते हैं। सदा पैदल विहार करते हैं । पैरों में जूते आदि कुछ नहीं पहिनते और न सिर पर पगड़ी, टोपी या छाता आदि लगाते हैं। जलती हुई धूप तथा कड़कड़ाती सरदी नंगे पैर और नंगे सिर ही बिताते हैं। स्वावलम्बी तथा निष्परिग्रह होने के कारण नाई आदि से बाल नहीं बनवाते । अपने ही हाथों से उन्हें उखाड़ डालते हैं अर्थात् लोच कर लेते हैं।
जैन साधु गृहस्थ से किसी प्रकार की सेवा नहीं करवाते। बीमार या अशक्त होने पर भी साधु के सिवाय किसी से सहायता नहीं लेते। भोजन न किसी से बनवाते हैं और न अपने निमित्त से बने हुए को ग्रहण करते हैं । गृहस्थों के घरों से थोड़ा थोड़ा
आहार लेकर, जिससे उन्हें न कष्ट हो न दुवारा बनाना पड़े, अपना जीवन निर्वाह करते हैं । इसी को गोचरी कहा जाता है। पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए तथा कर्मों का नाश करने के लिए विविध प्रकार की तपस्याएं करते रहते हैं। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्री को न छूते हैं और न अकेले अर्थात् गृहस्थ की अनुपस्थिति में उसके साथ वार्तालाप करते हैं।
दिगम्बर साधु बिल्कुल नग्न रहते हैं । रजोहरण के स्थान पर मयूरपिच्छ रखते हैं । श्वेताम्बरों में भी स्थानकवासी साधु मुखवत्रिका को मुख पर बाँधे रखते हैं और मूर्तिपूजक उसे हाथ में रखते हैं । स्थानकवासी मूर्तिपूजा को नहीं मानते।
जैन साधु छः काय के जीवों की रक्षा करते हैं। ऐसे किसी कार्य का उपदेश नहीं देते जिससे किसी प्रकार की जीवहिंसा हो। कच्चा पानी, कच्चे शाक, कच्चे फल, कच्चे धान या ऐसी किसी भी वस्तु को जिसमें जीव हों, नहीं छूते। भिक्षा के समय अगर कोई वस्तु इन्हें स्पर्श कर रही हो तो उसे नहीं लेते । प्रति दिन सुबह