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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह वाला हो जाता है । दर्शनावरणीय का नाश होने पर आत्मा का अनन्तदर्शन रूप गुण प्रकट होता है। इस गुरण के प्रकट होते ही आत्मा अनन्त दर्शन वाला हो जाता है। मोहनीय के नाश होते ही आत्मा में अनन्त चारित्र प्रकट होता है । अन्तराय का नाश होने पर उसमें अनन्त शक्ति उत्पन्न होती है । अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र और अनन्तवीर्य ये चार आत्मा के मूल गुण हैं। तेरहवें गुणस्थान में योगों की प्रवृत्ति होती है इसलिए कर्म - बन्ध होता है, किन्तु कषाय न होने से उन कर्मों में स्थिति या फल देने की शक्ति नहीं आती । कर्म आते हैं और बिना फल दिए अपने आप झड़ जाते हैं । चौदहवें गुणस्थान में योगों को प्रवृत्ति भी रोक दी जाती है । उस समय न मन कुछ सोचता है, न वचन बोलता है, न काया में हलचल होती है। इस प्रकार योग निरोध होने पर कर्मों का आगमन सर्वथा रुक जाता है। साथ में बाकी बचे हुए चार घात कर्मों का नाश भी हो जाता है। उनका नाश होते ही जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है। इसी का नाम मोक्ष है। मुक्ति या मोक्ष का अर्थ है कर्मों से सर्वथा छुटकारा | २०७ बाकी चार कर्मों के नाश से सिद्धों में नीचे लिखे गुण प्रकट होते हैं- वेदनीय के नाश से अनन्त या अव्यावाध सुख । आयुष्य के नाश से अनन्त स्थिति । नामकर्म के नाश से श्ररूपीपन । गोत्र के नाश से अगुरुलघुत्व | सिद्ध अर्थात् मुक्त आत्मा में चार पहले वाले मिला कर ये ही आठ गुण माने गए हैं। संसार में जन्म मरण का कारण कर्म है । कर्मों का नाश होते ही जन्म मरण का चक्र छूट जाता है। सिद्ध आत्माओं
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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