________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
का पहले होना आवश्यक है । जगत्स्वभाव और शरीरस्वभाव के चिन्तन से संवेग और वैराग्य की उत्पत्ति होती हैं। इस लिए इन दोनों के स्वभाव का चिन्तन भावना रूप से बताया गया है। संसार में ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो दुखी न हो । किसी कोकम दुःख है, किसी को अधिक । जीवन क्षणभङ्गुर है। संसार में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है । मनुष्य स्त्री पुत्र आदि परिवार तथा भोगों में जितना आसक्त होता है उतना ही अधिक दुखी होता है। इस प्रकार के चिन्तन से संसार का मोह दूर होता है। संसार से भय अर्थात् संवेग उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार शरीर में अस्थिर, अशुचि और असारपणे के चिन्तन से बाह्याभ्यन्तर विषयों से अनासक्ति अर्थात् वैराग्य उत्पन्न होता है ।
हिंसा का स्वरूप अहिंसा आदि पाँच व्रतों का निरूपण पहले किया जा चुका है। उन व्रतों को ठीक ठीक समझने तथा उनका भली प्रकार पालन करने के लिए उनके विरोधी दोषों का स्वरूप समझना आवश्यक है । नीचे क्रमशः पाँचों दोषों का दिग्दर्शन कराया जाता है। ___ तत्त्वार्थसूत्र में दिया है. - 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा'। अर्थात् प्रमादयुक्त मन, वचन और काया से प्राणों का वध करना हिंसा है। प्रमाद का साधारण अर्थ होता है लापरवाही। दूसरे प्राणी के सुख दुःख का खयाल न करते हुए मनमानी प्रवृत्ति करना और इस प्रकार उसे कष्ट पहुँचाना एक तरह की लापरवाही है । आत्मा के उत्थान या पतन की तरफ उपेक्षा रखते हुए क्रूर कार्यों में प्रवृत्ति करना भी लापरवाही है । शास्त्रों में इसी लापरवाही को उपयोगराहित्य या जयणा का न होना