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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पाँचों भाव एक साथ हो सकते हैं अन्य में नहीं । उक्त जीव में गति आदि औदयिक, चारित्र रूप औपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व रूप नायिक, इन्द्रियादि तायोपशमिक भाव और जीवत्व
आदि पारिणामिक भाव हैं। - कहीं कहीं सान्निपातिक भाव के १५ भेद दिये हैं। वे इस प्रकार हैं- इन छः भंगों में एक त्रिक संयोगी और दो चतुस्संयोगी ये तीन भङ्ग चारों गतियों में पाये जाते हैं। इसलिए गति भेद से प्रत्येक के चार चार भेद और तीनों के मिला कर बारह भेद हुए। शेष द्विक, त्रिक, और पंच संयोगी के तीन भङ्ग क्रमशः सिद्ध, केवली और उपशमश्रेणी वाले जीव रूप एक एक स्थान में पाये जाते हैं । वारह में ये तीन भेद मिलाने से छः भङ्गों के कुल १५ भेद हो गये।
_ (अनुयोगद्वार सूत्र १२६) (टाणांग ६ सूत्र ५३७) (कर्मग्रन्थ चौथा) ४७५-- वन्दना के छः लाभ
अपने से बड़े को हाथ वगैरह जोड़ कर भक्ति प्रकट करना वन्दना है । इस से छः लाभ हैं'विणोवयार माणस्स भंजणा पूअणा गुरुजणस्स ।
तिस्थयराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया ॥ (१) वन्दना करने से विनय रूप उपचार होता है । उपचार से गुरु की आराधना होती है। (२) मान अर्थात् अहंकार दूर होता है। जो लोग जाति वगैरह के मद से अन्धे बने रहते हैं वे गुरु की वन्दना नहीं करते। किसी दूसरे की प्रशंसा नहीं करते । इस तरह के अनर्थों का मूल कारण अभिमान वन्दना से दूर हो जाता है।