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के प्रभाव पूर्ण होने का प्रमाण मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि गोसाल' का जन्म गोशाला में हुआ था अतः वह गोशालक नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह एक भिक्षाचर का पुत्र था । गोशालक भ० महावीर की छद्मस्थ अवस्था में छह वर्ष जैसे दीर्घ समयतक उनके साथ रहा था । बादमें उनका साथ छोड़कर वह निकल गया और उसने नया मत स्थापित किया जो आजीविक सम्प्रदाय के नाम से या नियति वाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस मतका मन्तव्य इस प्रकार है:-. ।
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" सत्वों के क्लेश का हेतु नहीं है-प्रत्पय नहीं है । विना हेतु और विना प्रत्यय के ही सत्व क्लेश पाते हैं । सत्वों की शुद्धि का कोई हेतु नही है-कोई प्रत्यय नहीं है । विना हेतु और प्रत्यय के सत्व शुद्ध होते हैं । हम कुछ नहीं कर सकते हैं । कोई पुरुष भी नहीं कर सकता है । वल नहीं है। पुरुष का कोई पराक्रम नहीं है । सव सत्व, सब प्रानी, सब भूत और सबजीव अपने वश में नहीं है, निर्बल, निर्वीर्य, भाग्य और संयोग के फेर से छहजातियों में उत्पन्न हो सुख दुःख भोगते हैं"
वौद्ध ग्रन्थों में इस सिद्धान्त को संसार शुद्धिवाद कहा गया है और जैनसूत्रों में इसे नियातिवाद कहा गया है । आजीविकों के मत में बल, वीर्य पुरुषाकार या पराक्रम को स्थान नहीं है क्योंकि उनके मतानुसार प्रत्येक पदार्थ नियतिभावाश्रित है। उपासक दशाङ्क सूत्र में वर्णन है कि सकडाल पुत्र. कुम्भकार पहले इसी आजीविक सम्प्रदाय का चुस्तअनुयायी था । नियतिवाद में उसकी अटूट श्रद्धा थी परन्तु बाद में भगवान् महावीर के सदुपदेश से उसने पुरुषार्थ की महत्ता जानी और अंगीकार की। उसने आजीविक सम्पदाय का त्याग किया और भ० महावीर का श्रावक वनगया । भगवती सूत्र में गोशालक का विस्तृत अधिकार है । .... आजीविक सम्प्रदाय के अनुयायीयों के विषय में कहा जाता है कि वे अचेलक तपस्वी थे और प्रत्येक वस्तु में जीवत्व होने के कारण किसी को विघ्न बाधा न पहुँचे ऐसे व्यवहार में वे श्रद्धा रखते थे । सामान्यतः निर्दोष भिक्षाचारी से अपना जीवन यापन करते थे। मझिम-निकाय में कहा गया है कि "अजीविक लोग दूसरों की आज्ञा मानकर स्वमान भंग नहीं होने देते