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जैन-गौरव-स्मृतियां >>>
के सिवा और कोई उनका काम ही नही था । "स्त्रीशूद्रौ नाधीयेताम्" का खूब प्रचार था । मनुष्यों का महान व्यक्तित्व नष्ट हो चुका था और वे अपने आपको इन ब्रह्मण पुजारियों के हाथ का खिलौना बनाये हुए थे । प्रत्येक नदी नाला, प्रत्येक ईट पत्थर प्रत्येक झाड - भखाड़ देवता माना जाता था | भोला समाज अपने आपको दीन मान कर इनके आगे अपना मस्तक रगड़ता फिरता था । इस तरह आध्यात्मिक और संस्कृतिक पतन के काल में भगवान महावीर को अपना सुधार- कार्य प्रारम्भ करना पड़ा ।
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अपनी अपूर्णताओं को पूर्ण करने के पश्चात् विमल केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भगवान महावीर ने लोक-कल्याण के लिए उपदेश देना प्रारम्भ किया । उन्होंने अपने उपदेशों के द्वारा मानवता को जागृत करने का प्रयत्न किया। इसके लिए तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक भ्रान्त रूढियों के विरूद्ध उन्होंने प्रबल आन्दोलन किया । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि धर्म, aim क्रिया काण्डों ही के द्वारा नहीं किन्तु आत्मा के गुणों का विकास करने से होता है । धर्म के नाम पर की जाने वाली याज्ञिकी हिंसा धर्म का कारण नहीं बल्कि घोर पाप का कारण है । हिंसा से धर्म होना मानना, विष खाकर जीवित रहने के समान असम्भव कल्पना है । उन्होंने हिंसक यज्ञों के विरुद्ध प्रबल क्रान्ति की । ब्राह्मण धर्म गुरुओं की दाम्भिकताका पर्दा-फाश किया । जिस जातिवाद के आधार पर वे अपनी प्रतिष्ठा बनाये हुए थे उसके विरुद्ध महावीर ने सिंहनाद किया। उन्होंने जाति-पांति के भेद भाव को निर्मूल बताया। उन्होंने डंके की चोट यह उद्घोषणा की कि मानव मात्र ही नहीं, प्राणी मात्र धर्म का अधिकारी है । धर्म किसी वर्ग या व्यक्ति की पैतृक सम्पत्ति नहीं, वह सर्वसाधारण के लिए है । प्रत्येक प्राणी को धर्म के आराधन का अधिकार है । धर्म की दृष्टि में जाति की कोई महत्ता नहीं । मानव मानव के बीच भिन्नता की दीवार खड़ी करने वाले जातिवाद के विरुद्ध भगवान् महावीर ने प्रबलतम आन्दोलन किया । इसके फलस्वरूप अन्धविश्वासों के दुर्ग ढह-ढह कर भूमिसात् होने लगे । ब्राह्मण गुरुओं के चिर प्रतिष्ठित सिंहासन हिल उठे। चारों ओर क्रान्ति का ज्वाला मुखी फट पड़ा ! प्राचीनता के पुजारियों ने प्रचलित परम्पराओं की रक्षा के लिए तनतोड़ प्रयत्न किये, त को मिटाने के लिए अनेक उपायों का प्रयोग
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उपदेश और धर्म क्रान्ति