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________________ जैनगौरव -स्मृतियाँ ५४२ तीसरे शिष्य पृथ्वीराजजी से एकलिंगजी म. का सम्प्रदाय निकला । धर्मदासजी म. के चौथे शिष्य मनोहरदासजी से पृथ्वीचन्द्रजी म. का सम्प्रदाय निकला । धर्मदासजी म. के पांचवे शिष्य रामचन्द्रजी म. से माधवमुनि म. का सम्प्रदाय निकला । हरजी ऋषि से दौलतरामजी म. का सम्प्रदाय, अनोपचन्दजी म. का सम्प्रदाय और हुक्मीचन्द्रजी म. का सम्प्रदाय निकला । इस तरह वर्तमान स्थानक वासी बत्तीस सम्प्रदाय लवजी ऋषि, धर्मदासजी धर्मसिंहजी, जीवराजजी और हरजी ऋषि की परम्परा का विस्तार हैं । ये सव महापुरुष बड़े क्रिया पात्र और प्रभावक हुए । इससे स्थानकवासी सम्प्रदाय का अच्छा विस्तार हुआ | स्थानकवासी सम्प्रदाय ३२ आगमों को ही प्रमाण भूत मानता है । ग्यारह अंग, बारह उपांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोग, दशाश्रुत, व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ और आवश्यक । ये स्थानकवासी सम्प्रदाय के द्वारा मान्य आगम ग्रन्थ हैं। इस सम्प्रदाय के साधु-साध्वियों का आचार विचार उष्पकोटि का समा 'जाता है । क्रिया की उग्रता की ओर इस सम्प्रदाय का विशेष लक्ष्य रहा है और इससे ही इसका विस्तार हुआ है । तेरा पंथ स्वामी भीखरणजी इस सम्प्रदाय के प्राद्य प्रवर्तक हैं। आपने पहले स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के रघुनाथजी महाराज के सम्प्रदाय में दीक्षा धारण की थी । आठ वर्ष के पश्चात् दवादान संबंधी दृष्टिकोण और आचार विचार संबंधी विचार विभिन्नता के कारण आपने अलग सम्प्रदाय स्थापित किया । इस पन्थ के प्रथम आचार्य भिक्षु ( भीखाजी ) का जन्म संवत् १७८३ में मारवाड़ के कण्ठालिया ग्राम में हुआ था । आपके पिताजी का नाम साहूबल्लूजी और माता का नाम दीपा बाई था । श्राप श्रोमवंश के सखलेचा गोत्र में उत्पन्न हुए थे। आपने संवत् १८८ में तत्कालीन स्थानकवासी सम्प्रदाय में रघुनाथजी म. के पास दीक्षा धारण की। आपकी प्रतिभा श्रनुपम थी। थोड़े ही समय में आपने शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। आठ वर्ष के पश्चात् थापके दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया और तेरह साधुओं के साथ आप अलग हो गये । संवत् १८१६ में आपने अलग प्रदाय स्थापित किया। कहा जाता है कि तेरा साधु और तेरह अलग पौषच करते हुए श्रावकों को लक्ष्य में रख कर किसी ने इसका नाम ते पन्थ रख दिया । हे प्रभो ! यह तेरापन्थ "हम भाव को लक्ष्य में रख कर आचार्य जी ने वही नाम अपना लिया । P
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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