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* जैन-गौरव-स्मृतियां *
दूर रहना, ( सव्वात्रो अदिण्णादाणाश्रो वेरमणं ) सब प्रकार के अदत्तादान से दूर रहना और ( सव्वाओं बहिद्धादाणाओ वेरमणं ) सब प्रकार के परिगृह का त्याग करना । अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिगृह की आराधना करने से आत्मा का सर्वाङ्गीण विकास हो सकता है । अपरिगृह में ब्रह्मचर्य का भी समावेश हो जाता था क्योंकि उसकाल में स्त्री भी परिग्रह समझी जाती थी । इस प्रकार पार्श्वनाथ ने चतुर्याम मय धर्म का उपदेश दिया । बाह्य क्रिया काण्डों और विवेक शन्य दैहिक तप याओं के चक्कर में फंसी हुई जनता को आत्मतत्व और आत्मविकास का उपदेश देकर भगवान् पाश्वनाथ ने विश्व का महान् कल्याण किया। । सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् श्री धर्मानन्द कौशाम्बीने "भारतीय संस्कृति और अहिंसा" नामक अपनी पुस्तकमें पार्श्वनाथके सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है:- "परिक्षित के बाद जननेजय हुए और उन्होंने कुरुदेश में महायज्ञ करके वैदिक धर्म का झंडा लहराया । उसी समय काशी देश में पोश्च एक नवीन संस्कृति की आधार शिला रख रहे थे।"
"श्री पार्श्वनाथका धर्म सर्वथा व्यवहार्य था हिंसा, असत्य, अस्तेय और परिग्रह का त्याग करना, यह चतुर्याम संवरवाद उनका धर्म था । इसका इन्हों ने भारत में प्रचार किया । इतने प्राचीन काल में अहिंसा को इतना सुव्यस्थित रूप देने का, यह प्रथम ऐतिहासिक उदाहरण है।
.. "श्री पार्श्व मुनि ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह-इन तीन नियमों के साध अहिंसा का मेल बिठाया । पहले अरण्य में रहने वाले ऋषि मुनियों के आचरण में जो अहिंसा थी, उसे व्यवहार में स्थान न था अस्तु उक्त तीन । नियमों के सहयोग से अहिंसा सामाजिक वनी, व्यवहारिक बनी। . . . "श्री पार्श्व मुनि ने अपने धर्म के प्रसार के लिए संघ बनाया । बौद्ध साहित्य से ऐसा मालूम होता है कि बुद्ध के काल में जो संघ अस्तित्व में थे उनमें जैन साधु तथा साध्वियों का संघ सबसे बड़ा था।"
. 4 उक्त उदाहरण से भगवान् पार्श्वनाथ के महान् जीवन की झाँकी मिल जाती है । भगवान् पार्श्वनाथ वाराणसी-नरेश अश्वसेन और महारानी