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* जैन-गौरव-स्मृतियां RS
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भोगनेपड़ते हैं। ये कर्म-फल जब तक आत्मा पर लदे हुए हैं तब तक वह भव' भव में भ्रमण करता रहता है । जब कर्मों का क्षय होता है, आत्मस्वरूप की शुद्ध प्रतीती होती है, आत्मा और परमात्मा के तदात्म्य का अनुभव होता है। तब मोक्ष होता है । परमात्मा और जीवात्मा का अन्योन्त अभेद का नाम ही मोक्ष है"। यह पार्श्वनाथ का आत्मविपयक मन्तव्य था।
भारतीय तत्त्व ज्ञान का प्राचीन इतिहास अन्धकार से घिरा हुआ है अतः किसने और कब आत्म तत्व के सिद्धान्त की स्थापना की यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है । फिर भी प्राचीन वेद और उपनिषदों में
आत्मा का स्वरूप स्पष्ट नहीं है। बृहदारण्यक, छान्दोग्य, ततिरीय, ऐतरेय, कौशीतकी आदि उपनिषदों में वर्णित आत्म तत्व का स्वरूप वाद के उपनिषदों में परिवर्तित हो जाता है । काठक आदि उपनिषदों में उसका दूसरा ही रूप दृष्टिगोचर होता है । इससे विद्वानों का अनुमान है कि ईसा से पूर्व की सहस्राब्दी पूर्वार्ध में आत्म तत्व की विचारण विशेष रूप से हुई है । इसका प्रभाव ही वाद के उपनिषदों पर पड़ा है। अर्थात् पार्श्वनाथ ने आत्म-अनात्म तत्व की जो स्पष्ट विचारण की उसका ही प्रभाव तत्कालीन उपनिषदों पर पड़ा है । वैदिक और बौद्ध साहित्य में आत्म-तत्व की जो विचारण है उसका मूल बीज पार्श्वनाथ के आत्म-अनात्म विचारण में सन्निहित है । यह तो निश्चित है कि भगवान पार्श्वनाथ ने आत्मा की साधना पर विशेष भार दिया । उन्होंने अपना सारा जीवन आत्मा की साधना में ही व्यतीत किया
और उन्होंने अन्त में सफलता प्राप्त की। उन्हें परिपूर्ण आत्म ज्ञान प्राप्त होगया और उन्होंने अन्य जीवों को भी आत्मा और कर्म का स्वरूप समझाकर कर्म से मुक्त होने का उपाय बताया।
- आत्मा का शुध्द स्वरूप, कर्म जनित विकार और कर्मविकार से मुक्त . होने के उपायों का भगवान् पार्श्वनाथ ने तक्तालीन जनता को भलीभाँति
दिग्दर्शन कराया । आत्मा की साधना और मोक्ष की प्राप्ति चतुर्याम के पुरस्कर्ता के लिए उन्होंने चार महाव्रतों का पालन करने का विधान पार्श्वनाथः- किया । वे चार महाव्रत इस प्रकार हैं:-(सव्वाओ
पाणाइवायाोवेरमणं) सब प्रकार की हिंसा से दूर रहना, (सव्वाओ मुसावायाअोवेरमणं) सब प्रकार के मिथ्यासाषण से