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जैन- गौरव-स्मृतियां ★
सार्वजनिक क्षेत्र में मुक्तहस्त से दानः
जैनों ने केवल द्रव्य उपार्जन करना ही नहीं सीखा है परन्तु उसे मुक्तहस्त से परमार्थ में लगा देना भी सीखा । जैनबालक जन्म-घूटी के साथ ही दान के संस्कार भी प्राप्त कर लेता है । जैनों ने अपने धर्म के लिए तो करोड़ों रूपये लगाये ही हैं जिसके प्रमाण रूप में शत्रुजय, आबू और गिरनार के भव्य कलामय जिनमन्दिर विश्व को विस्मयान्वित कर रहे हैं परन् सार्वजनिक क्षेत्रों में भी जैनों की दानवीरता सदा से उल्लेखनीय रही है । वस्तुपाल-तेजपाल ने जिन मन्दिरों और साहित्यसेवा में करोड़ों रूपये लगाने के साथ ही साथ अनेक तालाब बनवाये एवं शैव तीर्थों को सहायता पहुँचाई अधिक क्या मुसलमानों के लिर मस्जिदें तक बनवाई दानवीर जगडुशाह ने १३१२ से १३१५ तक के भारतव्यापी दुष्काल के समय में अपने विपुल अन्नभण्डार सर्वसाधारण जनता के लिए खोल दिये । सद् भाग्य से जगह शाह के पास उस समय विपुल अन्नराशि थी। उसने सिन्ध, काशी, गुजरा मेवाड़ आदि अनेक देशों को अन्नदान दिया। '', इसके लिए वह 'जगत्पालक' की उपाधि से सन्मानित किया गया । अकेले जैनवीर ने तीन वर्ष के भीषण दुष्काल के संकट का निवारण वि इसी तरह खेमा देदराणी ने गुजरात के दुकाल:निवारण के लिए अप। विपुलद्रव्य-सोना चांदी के ढेर को गाड़ों में भरवा कर महम्मद वेगड़ा के पास भेज दिया और यह सिद्धकर बता दिया कि "पहले शाह और बाद में बादशाह" । दानवीर भामाशाह ने अपना सवस्व महाराणा प्रताप को समर्पित कर मेवाड़ और क्षत्रिय जाति की प्रान और शान की रक्षा की । आज भी जीवदया, गोरक्षा, पशुशाला, औषधालय, अनाथालय, विद्यालय, स्कूल, बोडिंग, पुस्तकालय, वाचनालय आदि विविध सार्वजनिक प्रवृत्तियाँ जैनों की .ओर से चलाई जाती है । जीवदया और पशुरक्षण के कार्य में प्रतिवर्ष लाखों रुपये जैनलोग व्यय करते हैं । ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीय स्वातन्त्र्य संग्राम लड़ने वाली काँग्रेस और उसके कार्यकर्ताओं को आर्थिक सहयोग देने में जैनों का महत्त्वपूर्ण भाग रहा है। बंगाल के दुर्मिन के समय में तय भूकम्प, बाढ आदि प्राकृतिक प्रकोप के समय जैन लोगों ने दिल खोल सहायता की है और वर्तमान में भी करते हैं जैनजाति जैसे सम्पन्न है है दानवीर भी है।
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