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________________ Sing*जैन-गौरव-स्मृतियाँ *Seri रहित खुले आंगन में इतने चिरकाल से स्थापित होने पर भी वर्पा, धूप, हवा आदि का इस पर प्रभाव नही पड़ा है। कला और सौन्दर्य, विशालता और भव्यता के लिए यह बेजोड़ मूर्ति हैं। काका कालेलकर इसके सौन्दर्य को देखकर आत्म-विभोर के होगये थे। उन्होंने इसके विपय में गुजराती में लिखा था उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं : "जब हम बाहुबलि के दर्शन के लिए गये तब हम ने शास्त्र की मर्यादा ध्यान में रख कर आपाद-मस्तक घूम २ कर दर्शन किया। .........मूर्ति के दोनों ओर दो वल्मीक बने हुए हैं। मेरा ध्यान वल्मीक से निकलते हुए बड़े २ सौ की ओर गया। कारूण्यमूर्ति, अहिंसाधर्मी बाहुबलि के नीचे स्थान मिलने से ये महान्याल भी बिल्कुल अहिंसक हो गये हैं और अपने फण फैला कर मानों दुनिया को अभय वचन दे रहे हैं । नजर कुछ आगे बढ़ी तो दोनों ओर से दो माधवी लताएँ महापराक्रमी वाहुबलि का आधार लेकर अपना उन्नतिक्रम सिद्ध करती हुई दिखाई दी। ............ बोहुवलि वाहुवली हैं फिर उनका शरीर मल्ल जैसा नहीं दिखाया गया । उनकी कमर में बढ़ता है, छाती विशाल है, स्कन्ध दृढ़ हैं । सारा शरीर भरावदार, योवनपूर्ण, नाजक और क्रान्तिमान है । एक ही पत्थर से निर्मित इतनी सुन्दर मृत्ति संसार में और कहीं नहीं। इतनी बड़ी मूर्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्ति के साथ कुछ प्रेम की भी अधिकारिणी है। नीचे उतरने पर कान-शरीर-रचना के प्रमाण को सिद्ध नहीं करते पर मूर्ति की प्रतिष्टा बढ़ाते हैं। मुझे तो इस मृत्ति की अांखे, पोष्ट ठुड़ी, भौंह ओष्ट पर का कारुण्य सभी असाधारण दिखाई देते हैं । अाकाश के नक्षत्रवृन्द जैसे लाखों वर्ष पर्यन्त टिमटिमाते रहने पर भी वैसे के वैसे ताजे, द्युतिमान और सुभग है उसी तरह धूप, हवा और पानी के प्रभाव से पीछे की ओर ऊपर की पपड़ी खिर पड़ने पर भी इस मूर्ति का लावण्य खण्डित नहीं हुआ" | . बेलूर और हलेवाड़ के मन्दिर द्राविड़ और चालुक्य कला के अनुपम रल हैं। स्मिथ का कहना है कि ये मन्दिर धर्मशील मानव जाति के अम का आश्चर्य जनक नमूना है । इनके कलाकौशल को देखकर नेत्र लत नहीं होते।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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