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* जैन-गौरव-स्मृतियाँ ★SMS
है । साहित्य, कला और पुरातत्त्व प्रेमियों के लिए यह तीर्थस्वरूप है । भव्य मन्दिरों के कारण धर्म तीर्थ तो है ही । यहाँ के मन्दिरों की शिल्पकला की शिल्प-विशारदों ने बड़ी प्रशंसा की है । जैसलमेर जैसे दुर्गम स्थान पर बने हुए ये कलापूर्ण भव्य मन्दिर जैनश्रीमन्तों की धर्मपरायणता और शिल्प प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं। यहाँ के मुख्य २ मन्दिर इस प्रकार है:--
.. () पार्श्वनाथ जी का मन्दिर- यह सबसे प्राचीन मंन्दिर है। संवत् १२१२ में जैसलमेर की स्थापना हुई। उसके पहले लोद्रवा में भाटी राजपूतों की राजधानी थी । यहाँ जैनियों की बहुत बस्ती थी। रावल भोजदेव के गद्दी पर बैठने के पश्चात् उसके काका जेसलराज ने महम्मद गोरी से सहायता लेकर लोद्रवा पर आक्रमण किया । इस युद्ध में भोजदेवं मारा गया
और लोद्रवा नगर भी नष्ट होगया। रावल जैसल ने लोद्रवा से राजधानी हटाकर जेसलमेर नाम का दुर्ग बनवाया और शहर बसाया । लोदवा के बस के पश्चात जो जैन जैसलमेर आगये वे अपने साथ लोद्रया की पार्श्वनाथ की । प्रतिमा भी ले आये । सं० १४५६ में जिनराज .. सूरि के उपदेश से मन्दिर में बनना प्रारम्भ हुआ। सं० १४७३ में जिनचन्द्र सूरि के समय में इसकी प्रतिष्ठा । हुई। सेठ जयसिंह नरसिंह रांका ने यह प्रतिष्ट. कराई थी। इस प्रतिमा पर वि० सं० २०० का लेख है । यही जैसलमेर तीर्थ के नायक हैं। वावन जिना लय का भव्य मन्दिर है । इसका दूसरा नाम लक्ष्मण बिहार है। इस मन्दिर की कारीगरी अपने ढंग की अद्भुत है।
- (२) श्री सम्भवनाथ जी का मन्दिर-इस मन्दिर की प्रतिष्टा श्री जिनभद्रसूरिजी के हाथों से हुई। इस को चौपड़ा गौत्रीय हेमराज ने बनाया। इस मन्दिर की ३०० मूर्तियों की अंजशनशलाका श्री जिनभद्रसूरिजी ने करवाई थी। इस मन्दिर के तलघर में विशाल ताइपत्रीय पुस्तकमण्डार है। इसमें पीले पापाग में ग्बुदा हुआ तटपट्टिका का विशाल शिलालेग्य लगा हुया।
(३) श्री शान्तिनाथ और अष्टापदजी के मन्दिर-ये दोनों एक ही श्रहाने में हैं । अपर श्री शान्तिनाथ जी का मन्दिर हैं और नीचे अष्टापद
ik katke krka kakk:( १६६ ):Kikeko kala kakka