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*जैन गौरव स्मृतियाँ
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ने यहाँ के मन्दिरों का ध्वंस किया। मुसलमानी भय दूर होने पर पुनः इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा की गई ।
यहाँ प्राचीन और नवीन दो मन्दिर हैं। दोनों की रचना बड़ी भव्य है । उत्तरकालीन तीथ श्रद्धालु श्रावकों ने यहाँ सुन्दर कलामय निर्माण कार्य करवाया है । शंखेश्वर की पंचतीर्थी में राधनपुर सभी, मुंजपुर, चडगाम तीर्थ और उपरिमाला तीर्थ हैं। पंचासर, दसाडा आदि दर्शनीय हैं।
पाटन:
यह गुजरात की प्राचीन राजधानी थी। किसी समय सारे भारत में इस नगरी की प्रभुता, समृद्धि, कला-कौशल और संस्कारिता की छाप पड़ती थी। गुर्जरनरेशों के जैनमंत्री और प्रधान मुत्सद्दियों ने इसको उन्नति के शिखर पर आरूढ किया था । भारत की लक्ष्मी किसी समय पाटन में लीला करती थी । यह नगरी किसी समय व्यापार, कला और शिक्षण का केन्द्र थी । पाटन की प्रभुता का श्रेय जैनधर्म और उसके अनुयायियों को हैं । इस नगरी की स्थापना वनराज चावड़ा ने वि० सं० ८०२ में की थी । वनराज के गुरु परमोपकारी श्री शीलगुणसूरि थे । इनकी सहायता से ही वनराज राजा बन सका और पाटन की स्थापना करने में सफल हुआ । अतः पाटन के संस्थापक और इसके संवर्धक जैन ही रहे हैं । अस्तु । यह जैनों का ऐतिहासिक तीर्थ है । यहाँ अभी ११६ मंदिर हैं । मुख्य मंदिर पंचासरा पार्श्वनाथ का है । वनराज ने यह मंदिर बनवाया था और पंचासर से मूत्र्ति लाकर यहाँ स्थापित की थी। जैनों के अष्टापद जी, थंभन पार्श्वनाथ, कोका पार्श्वनाथ, साँवलिया पार्श्वनाथ, मनमोहन पार्श्वनाथ आदि सैकड़ों देवालय अव भी यहाँ की शोभा बढ़ा रहे हैं ।
यहाँ अनेक प्राचीन पुस्तकभण्डार हैं । ताड़पत्र और कागज पर लिखी हुई सचित्र हस्तलिखित प्रतियों का यहाँ विशाल संग्रह है । कुमारपाल राजा के समय हेमचन्द्राचार्य के उपाश्रय में ५०० लेखक प्रतिदिन बैठकर. ग्रन्थ लिखते थे । स्याही के कुण्ड श्रभी तक दिखाई पड़ते हैं । पाटन की प्राचीन प्रभुता जैनधर्म की प्रभुता है । पाटन के प्रासपास चारूप, मोढेरा गांभूगंभूता, कम्बोई, चरणमा, हारीत और मेन्त्राणा यदि भी तीर्थस्थान जहाँ प्राचीन जिनमंदिर है ।
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