________________
* जैन-गौरव स्मृतियां
-
.
इतिहास-काल के पूर्व का जैन धर्म ।
जैन दृष्टि के अनुसार यह काल-प्रवाह 'चक्रनेमि-क्रम' की तरह गतिशील है। जिस प्रकार गाड़ी का पहिया ऊपर-नीचे जाता-आता रहता है इसी
तरह जगत् का इतिहास भी कभी उत्कर्ष की पराकाष्ठा भगवान् रिषभदेव पर पहुंचता है तो कभी अपकर्व की चरम सीमा पर ।
__ इन उत्कर्ष और अपकर्ष के किनारों में बद्ध होकर यह काल-प्रवाह अनादि काल से प्रवाहित हो रहा है और प्रवाहित होता रहेगा।
जैन परिभाषा में इसे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी-काल कहते हैं। ... प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में चौवीस युगावतारी महापुरुष उत्पन्न होते हैं जो जगत् को 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का संदेश दे जाते हैं। ये महापुरुप 'तीर्थकर' कहे जाते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थकर हुए उनमें सर्वप्रथम रिषभदेव और अन्तिम महावीर स्वामी हैं। .... रिषभदेव अत्यन्त प्राचीन काल में हो गये हैं। जैन परिभाषा के
अनुसार अवसर्पिणी काल-चक्र के तीसरे सुषम दुःषम आरा के अधिकांश भाग के व्यतीत हो जाने पर भगवान् रिषमदेव का जन्म हुआ था। वह काल युगलियों का काल था। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि वह मानव-सभ्यता का आदि काल था। उस समय न गाँव बसे थे और नः नगर, न कृषि का धंधा था और न वाणिज्य व्यवसाय, न उद्योग था और न कलाकौशल । सब लोग वृक्षों के नीचे रहते थे और वृक्षों से ही अपनी सव आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे। उस समय के लोगों की आवश्यकताएँ अत्यन्त कम थीं। कल्पवृक्षों के द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाया करती थी। अतः उस काल के लोगों का जीवन सुख-संतोषमय था परंतु साथ ही संवर्ष-शून्य भी। - भगवान् रिषभदेव, इसी युग के जननायक अन्तिम कुलकर श्री नाभिराजा के सुपुत्र थे। आपकी माता का नाम सरुदेवी था। भगवान् रिषभदेव का बाल्यकाल इसी युगकालीन सभ्यता में बीता। समय बदल रहा था। प्रकृति का वैभव क्षीण होने लगा। तत्कालीन प्रजा के एकमात्र आधार रूप कल्पवृक्ष कम होने लगे और उनकी फल देने की शक्ति भी मन्द हो गई।